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________________ ७१० सूत्रकृतांग सूत्र फासेसु य भयपावएस, फासविसयमुवगएसु । तुझेण व रुह्रण व समणेण सया ण होयव्वं ।।५।। वीणा और वेणु (वर्तमान में रेडियो आदि) के मधुर शब्द कान में टकराएँ तो साधु उनमें प्रसन्न न हो, और न ही कर्कश शब्द कान में पड़ने पर उन पर अप्रसन्न हो। इसी प्रकार सुन्दर और असुन्दर रूप भी आँखों के सामने आएँ तो साधु कदापि उन पर प्रसन्न या अप्रसन्न न हो, गन्ध अच्छा या बुरा जैसा भी नाक में आए, साधु कभी तुष्ट या रुष्ट न हो, भोज्य पदार्थ स्वादिष्ट या खराब जैसे भी जीभ पर आएँ, साधु उनके प्रति तोष या रोष न लाए। इसी प्रकार स्पर्श भी भला या बुरा जैसा भी शरीर से हो, साधु न तो उन पर खुश हो, न नाराज । निष्कर्ष यह है कि मनसहित पाँचों इन्द्रियों के जो भी मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषय हों, उनके प्रति राग (आसक्ति) या द्वेष (घृणा, रोष आदि) न करे, समभाव से अपने शुद्ध संयमपथ पर चले । इच्छा-मदनरूप समस्त कामविकारों से आसक्ति हटाकर शुद्ध संयम पालन करे । मूल पाठ सव्वाइं संगाइं अइच्च धीरे, सव्वाई दुक्खाइं तितिक्खमाणे । अखिले अगिद्धे अणिएयचारी, अभयंकरे भिक्ख अणाविलप्पा ।।२८।। संस्कृत छाया सर्वान् संगानतीत्य धीरः, सर्वाणि दुःखानि तितिक्षमाणः । अखिलोऽगृद्धोऽनियतचारी, अभयंकरो भिक्षुरनाविलात्मा ॥२८।। अन्वयार्थ (धीरे भिक्खु) बुद्धिशाली भिक्षु (सव्वाइं संगाई अइच्च) सर्वसंगों को छोड़कर, (सव्वाइं दुक्खाई तितिक्खमाणे) सब दु:खों को सहन करता हुआ (अखिले अगिद्ध अणिएयचारी) ज्ञान-दर्शन-चारित्र से सम्पूर्ण तथा विषयभोगों में अनासक्त एवं अप्रतिबद्धविहारी (अभयंकरे) प्राणियों को अभयदान देने वाले (अणाविलप्पा) तथा विषयकषायों से अनाकुल-आत्मा होकर संयम का भलीभाँति पालन करता है। भावार्थ बुद्धि से सुशोभित भिक्षु समस्त आसक्तियुक्त सम्बन्धों का परित्याग करके समस्त दुःखों को सहन करता हुआ, ज्ञान-दर्शन-चारित्र से परिपूर्ण विषयभोगों में अनासक्त एवं अप्रतिबद्धविहारी होता है। तथा वह प्राणियों को अभय देता हुआ और विषय-कषायों से अनाकुल होकर सुचारु रूप से संयम का पालन करता है। व्याख्या सुशील साधु की संयम साधनाएँ पूर्वगाथा में सुशील साधु के आचार-विचारों का निरूपण किया था, इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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