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सूत्रकृतांग सूत्र
फासेसु य भयपावएस, फासविसयमुवगएसु ।
तुझेण व रुह्रण व समणेण सया ण होयव्वं ।।५।। वीणा और वेणु (वर्तमान में रेडियो आदि) के मधुर शब्द कान में टकराएँ तो साधु उनमें प्रसन्न न हो, और न ही कर्कश शब्द कान में पड़ने पर उन पर अप्रसन्न हो। इसी प्रकार सुन्दर और असुन्दर रूप भी आँखों के सामने आएँ तो साधु कदापि उन पर प्रसन्न या अप्रसन्न न हो, गन्ध अच्छा या बुरा जैसा भी नाक में आए, साधु कभी तुष्ट या रुष्ट न हो, भोज्य पदार्थ स्वादिष्ट या खराब जैसे भी जीभ पर आएँ, साधु उनके प्रति तोष या रोष न लाए। इसी प्रकार स्पर्श भी भला या बुरा जैसा भी शरीर से हो, साधु न तो उन पर खुश हो, न नाराज । निष्कर्ष यह है कि मनसहित पाँचों इन्द्रियों के जो भी मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषय हों, उनके प्रति राग (आसक्ति) या द्वेष (घृणा, रोष आदि) न करे, समभाव से अपने शुद्ध संयमपथ पर चले । इच्छा-मदनरूप समस्त कामविकारों से आसक्ति हटाकर शुद्ध संयम पालन करे ।
मूल पाठ सव्वाइं संगाइं अइच्च धीरे, सव्वाई दुक्खाइं तितिक्खमाणे । अखिले अगिद्धे अणिएयचारी, अभयंकरे भिक्ख अणाविलप्पा ।।२८।।
संस्कृत छाया सर्वान् संगानतीत्य धीरः, सर्वाणि दुःखानि तितिक्षमाणः । अखिलोऽगृद्धोऽनियतचारी, अभयंकरो भिक्षुरनाविलात्मा ॥२८।।
अन्वयार्थ (धीरे भिक्खु) बुद्धिशाली भिक्षु (सव्वाइं संगाई अइच्च) सर्वसंगों को छोड़कर, (सव्वाइं दुक्खाई तितिक्खमाणे) सब दु:खों को सहन करता हुआ (अखिले अगिद्ध अणिएयचारी) ज्ञान-दर्शन-चारित्र से सम्पूर्ण तथा विषयभोगों में अनासक्त एवं अप्रतिबद्धविहारी (अभयंकरे) प्राणियों को अभयदान देने वाले (अणाविलप्पा) तथा विषयकषायों से अनाकुल-आत्मा होकर संयम का भलीभाँति पालन करता है।
भावार्थ बुद्धि से सुशोभित भिक्षु समस्त आसक्तियुक्त सम्बन्धों का परित्याग करके समस्त दुःखों को सहन करता हुआ, ज्ञान-दर्शन-चारित्र से परिपूर्ण विषयभोगों में अनासक्त एवं अप्रतिबद्धविहारी होता है। तथा वह प्राणियों को अभय देता हुआ और विषय-कषायों से अनाकुल होकर सुचारु रूप से संयम का पालन करता है।
व्याख्या
सुशील साधु की संयम साधनाएँ
पूर्वगाथा में सुशील साधु के आचार-विचारों का निरूपण किया था, इस
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