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कुशील-परिभाषा : सप्तम अध्ययन
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गाथा में उसकी विभिन्न साधनाओं के सम्बन्ध में निरूपण करते हैं। पूर्वगाथा में पाँचों इन्द्रियों के विषयों में रागद्वेष रहित होकर संयमस्थ रहने की बात थी, इस गाथा में अन्य साधनाओं के सम्बन्ध में कहते हैं - सर्व संगों का त्याग करने का अर्थ है आभ्यन्तर संग-आसक्ति और बाह्य सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति आसक्ति यानी दोनों प्रकार के परिग्रहों को छोड़कर विवेकी साधक शारीरिक-मानसिक दुःखों के समय सहनशील बने~-यानी उपसर्गों और परीषहों से उत्पन्न दुःखों को समभावपूर्वक सहन करता रहे। तभी वह अखिल यानी ज्ञान-दर्शन-चारित्र से सर्वांगपूर्ण बनता है। और जब वह कामवासनाओं में आसक्त नहीं होता, तभी वह अप्रतिबद्धविहारी होता है द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव के प्रतिबन्ध से रहित होकर विचरण करता है। ऐसा होने पर ही वह स्वयं निर्भय होकर दूसरों का अभयदाता बनता है। ये सब साधनाएँ तभी सफल हो सकती हैं, जब साधक विषयों और कषायों से आकूल नहीं होता उन्हें सेवन के लिए उतावला नहीं होता, न उनसे घबराता है, तिलमिलाता है। ये सुशील साधु की कुछ आवश्यक संयम-साधनाएँ हैं ।
मूल पाठ भारस्स जत्ता मुणि भुंजएज्जा, कंखेज्ज पावस्स विवेगं भिक्खू । दुक्खेण पुठे धुयमाइएज्जा, संगामसीसे व परं दमेज्जा ॥२६॥
संस्कृत छाया भारस्य यात्रायै मुनिर्भुजीत, कांक्षेत् पापस्य विवेक भिक्षुः । दुःखेन स्पष्टो धुतमाददीत, संग्रामशीर्ष इव पर दमयेत् । ॥२६॥
___ अन्वयार्थ (नुणि भारस्स जत्ता) मुनि पंचमहाव्रतरूप संयम यात्रार्थ (भुंजएज्जा) आहार करे। (भिक्खू पावस्स विवेगं कंखेज्ज) भिक्षु अपने पूर्वपाप का त्याग करने की इच्छा करे। (दुखेण पुढे धुयमाइएज्जा) दुःख का स्पर्श होने (आ पड़ने) पर धुत -- संयम या मोक्ष को ग्रहण-स्मरण करे, या उसमें ध्यान लगाए । (सगामसीसे व परं दमेज्जा) युद्ध भूमि में (युद्ध के मोर्चे पर) जैसे सुभट पुरुष शत्रु के योद्धा का दमन करता है, उसी तरह साधु कर्मरूपी शत्रु का दमन करे ।
भावार्थ मुनि संयम के निर्वाह के लिए आहार करे, भिक्ष अपने पूर्वपाप को छोड़ने का संकल्प करे, दुःखों का स्पर्श होने पर साधु अपने संयम या मोक्ष का चिन्तन करे या ध्यान लगाए । जैसे सुभट पुरुष युद्ध के मोर्चे पर शत्रु का दमन करता है, वैसे ही साधु कर्मरूपी शत्रु का दमन करे ।
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