Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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कुशील-परिभाषा : सप्तम अध्ययन
प्राणिघातकर्ता प्रत्येक जीव की यह दशा होती है। अतः शुद्ध भिक्षावृत्ति से निर्वाह करने वाले विद्वान् मुनि को इन सब बातों पर विचार करके पाप से निवृत्त होकर मन-वचन-काया से इन पापों से अपनी आत्मा की रक्षा करनी चाहिए, और त्रसस्थावर प्राणियों की प्रकृति, सुख-दु:ख आदि को जानकर उनके घात की क्रियाओं से दूर रहना चाहिए।
मूल पाठ जे धम्मलद्धं विणिहाय भुंजे, वियडेण साहट्ट य जे सिणाई। जे धोयइ लूसयई व वत्थं, अहाहु से णागणियस्स दूरे ॥२१॥
संस्कृत छाया यो धर्मलब्धं विनिधाय भुक्त, विकटेन संहृत्य च यः स्नाति । यो धावति लूषयति च वस्त्र, अथाहुः स नाग्न्यस्य दूरे ॥२१॥
अन्वयार्थ (जे) जो साधुनामधारी (धम्मलद्ध) धर्म से मिले हुए-- यानी औद्द शिक, क्रीत आदि दोषों से रहित आहार को (विणिहाय) छोड़कर (भुंजे) उत्तम स्वादिष्ट भोजन खाता है, (वियडेण, तथा अचित्त जल से भी (साहटु) अपने अंगों का संकोच करके (सिकोड़ कर) भी (जे) जो (सिणाइ) स्नान करता है, तथा (जे) जो (धोयइ) अपने वस्त्र या पैर आदि को धोता है, (लूसयई व वत्थं) एवं शोभा के लिए जो बड़े वस्त्र को छोटा या छोटे वस्त्र को बड़ा करता है (अहाहु) तीर्थंकर और गणधरों ने कहा है कि (से णागणियस्स दूरे) वह नग्नभाव-संयम से दूर है।
भावार्थ जो साधुनामधारी दोषरहित धर्मप्राप्त (साधुधर्म की भिक्षामर्यादा से प्राप्त) आहार को छोड़कर रसलोलुपतावश अन्य सरस स्वादिष्ट भोजन खाता है, तथा अचित्त पानी से अचित्त स्थान में अंगों को सिकोड़ करके भी स्थान करता है, शोभा के लिए अपने वस्त्र, पैर आदि को धोता है, शृगार के लिए जो बड़े वस्त्र को छोटा और छोटे को बड़ा करता है, वह निर्ग्रन्थभावरूप संयम से दूर है, ऐसा तीर्थंकरों एवं गणधरों ने कहा है।
व्याख्या स्वावलोलुपता, शोभा एवं श्रृंगार की भावना संयमनाशिनी है प्रस्तुत गाथा में शास्त्रकार सुशील साधु की चर्या की ओर इंगित करते हुए शिथिलाचारपरायण साधु की वृत्ति एवं दुश्चर्या की झाँकी प्रस्तुत करते हैं-वास्तव में शिथिलाचार या दुश्चर्या की वृत्ति साधु में तभी जागती है, जब वह आत्मकल्याण की साधना से हटकर शरीरासक्तितत्पर हो जाता है। ऐसे साधु की वृत्ति हमेशा
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