Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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वीरस्तुति : छठा अध्ययन
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के लिये माँग लिया । राजा ने वह चोर उक्त रानी को सौंप दिया। फलतः रानी ने उसे नहला-धुलाकर, उत्तम भोजन वस्त्रादि से उसका सत्कार किया, और एक हजार स्वर्णमुद्रायें उसे मनचाहा आमोद-प्रमोद करने के लिए दीं। दूसरे दिन दूसरी रानी ने भी इसी प्रकार राजा से उस चोर को माँगकर पहली रानी की तरह सत्कृत किया, और एक लाख सोने की मुहरें उसे यथेष्ट विषयोपभोग के लिए दीं, तीसरे दिन तीसरी रानी ने भी चोर का इसी तरह सत्कार किया और एक करोड़ मुद्राएँ उसे अपनी मनचाही इच्छा पूरी करने के लिए दीं। चौथे दिन चौथी रानी की बारी थी । उसने भी चोर को राजा से माँग लिया और कहा कि "मैं चाहती हूँ कि इसका मृत्युदण्ड माफ कर दिया जाय ।" राजा ने उक्त रानी की बात मान कर उसकी मृत्यु की सजा माफ कर दी। रानी ने उसका पूर्वोक्त तीनों रानियों की तरह कोई सत्कार नहीं किया और न उसे धन ही दिया, सिर्फ उसे बुलाकर कहा कि - "भाई ! मैंने तुम्हारा मृत्युदण्ड सदा के लिए माफ करवा दिया है, अब तुम निर्भय हो ।" चौथी रानी की यह प्रवृत्ति देख शेष तीनों रानियाँ उसकी मजाक करने लगीं - " वाह ! तुमने तो इसे कुछ नहीं दिया, बड़ी कंजूस हो तुम !” उसने कहा—“मैंने अपनी समझ से इसका सबसे ज्यादा उपकार किया है ।" इस पर रानियों में परस्पर विवाद छिड़ गया। फैसले के लिए राजा ने चोर को ही बुलाकर पूछा "सच सच बताओ, तुम पर सबसे ज्यादा उपकार किस रानी ने किया है ?" चोर ने उत्तर दिया- "महाराज ! मुझ पर सबसे अधिक उपकार चौथी रानीजी ने किया है, क्योंकि स्नान, भोजन, धन आदि मिलने पर भी मैं तो मृत्यु के भय से काँप रहा था। मुझे तो कुछ भी सुधबुध नहीं थी कि मैंने क्या खाया-पिया या पहना है ? मेरे सामने तो मौत नाच रही थी । इसलिए अन्य सुखों का तो मुझे भान ही नहीं रहा । जब मेरे कानों में ये शब्द पड़े कि तुम्हारा मृत्युदण्ड सदा के लिए माफ कर दिया गया है, तुमने मरण से रक्षा पा ली है, तो मेरे आनन्द का पार न रहा। मुझे जीवनदान देकर चौथी रानीमाता ने नया जन्म दिया है ।" राजा ने निर्णय दे दिया कि अभयदान देना ही सबसे श्रेष्ठ उपकार है । इस पर से यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि अभयदान समस्त दानों में श्रेष्ठ है ।
श्रेष्ठ कहते हैं, जो निरवद्य - निष्पाप
सत्यवाक्यों में आध्यात्मिक पुरुष उसे ही हो, दूसरों को पीड़ा उत्पन्न करने वाला न हो । सत्य का वास्तविक लक्षण ही यही है - 'सद्भ्यो हितं सत्यम्', जो प्राणियों के लिए हितकर हो, वह सत्य है । जो वाक्य प्राणियों को पीड़ा पहुँचाने वाला हो, वह चाहे भाषा की दृष्टि से यथार्थ हो, वास्तव में सत्य नहीं है । जैसे कि दशवैकालिक सूत्र में कहा है
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तहेव काणं काणेत्ति पंडगं पंडगत्ति वा । वाहियं वावि रोगित्ति, तेणं चोरेत्ति नो वए ।
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