Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र कर्म दूसरे जन्म में फल देता है। कोई एक ही जन्म में फल दे देता है, तो कोई कर्म सैकड़ों जन्मों में जाकर फल देता है। कोई कर्म जिस तरह किया किया गया है, उसी तरह फल दे देता है, तो कोई कर्म दूसरी तरह से फल देता है । कुशील पुरुष सदा संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं और वे एक कर्म का दुःखरूप फल भोगते हुए फिर आर्तध्यान करते हुए दूसरा कर्म बाँधते हैं। इस प्रकार वे अपने दुष्कृत्यों के फलस्वरूप सदा कर्म बाँधते रहते हैं और भोगते रहते हैं।
व्याख्या प्राणियों का विनाशकर्ता स्वयं विनष्ट होता है
इस तीसरी गाथा में बताया गया है कि पूर्वगाथा में उक्त प्राणियों को दण्डित करने वाला प्राणी किस प्रकार जन्म-जन्म में दण्डित होता है, और अन्त में कैसे अपना विनाश कर लेता है ?
एकेन्द्रिय आदि जातियों के पथ को 'जातिपथ' कहते हैं । अथवा जाति जन्म को कहते हैं । 'पह' का 'वह' रूप होकर 'वध' शब्द बन जाता है, उसका अर्थ होता है---मरण । अर्थात् एकेन्द्रिय आदि जातियों में जन्म-मरण करता हुआ जीव अथवा बार-बार जन्म-मरण का अनुभव करता हुआ वह जीव द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों में, एवं पृथ्वी, जल आदि स्थावर जीवों में उत्पन्न होकर जीवों को उसने पूर्वजन्म में जिस प्रकार का दण्ड दिया था, तदनुरूप कर्मविपाक से बार-बार नाश को प्राप्त होता है । प्राणियों को अत्यन्त दण्ड देने वाला तथा बार-बार जन्म पाकर उनमें अतिक्ररकर्म करने वाला वह जोव सद्-असद-विवेक से रहित होने के कारण बालक के समान अज्ञानी है। वह जिस एकेन्द्रिय आदि जाति के प्राणियों की हिंसारूप जो कर्म करता है, उसी कर्म से वह मर जाता है अथवा उसी कर्म से वह मारा जाता है, अथवा 'मिज्जई' का संस्कृत रूप 'मीयते' भी होता है जिसका अर्थ होता है--- वह अतिक्रूरकर्मा पुरुष लोक में 'यह चोर है, गुण्डा है, हत्यारा है, इत्यादि रूप से उसी कर्म के द्वारा बदनाम किया जाता है । कर्म कदापि और कहीं भी नहीं छोड़ते
___चौथी गाथा में पूर्वगाथा के सन्दर्भ में बताया गया है कि कुशील पुरुष को अपने कर्मों का फल कहाँ-कहाँ, कब और किस प्रकार से भोगना पड़ता है। जो कर्म शीघ्र फल देने वाले हैं. वे इसी जन्म में कर्ता को फल दे देते हैं। अथवा दूसरे जन्म-नरक आदि में वे अपना फल देते हैं । वे कर्म या तो एक ही जन्म में अपना तीव्र विपाक उत्पन्न करते हैं, या फिर अनेक जन्मों में उत्पन्न करते हैं । प्राणी जिस प्रकार से अशुभ कर्म करता है, कर्म उसे उसी प्रकार से फल देता है, अथवा दूसरी तरह से भी देता है । मृगापुत्र की तरह कोई कर्म दूसरे भव में अपना फल देता है। तथा जिसकी दीर्घकालिक स्थिति है, वह कर्म अन्य जन्मों में अपना फल देता है । एवं
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