Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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वीरस्तुति : छठा अध्ययन
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अन्वयार्थ (अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता) भगवान महावीर ने सर्वोत्तम धर्म का उपदेश देकर (अणुत्तरं झाणवरं झियाई) सर्वोत्तम श्रेष्ठ ध्यान -शुक्लध्यान की साधना की। (सुसुक्कसुक्कं) भगवान् का ध्यान अत्यन्त शुक्ल वस्तुओं के समान शुक्ल था, (अपगंडसुक्कं) तथा वह दोषविवर्जित शुक्ल था, (संखिदुएगंतवदातसुक्क) शंख, चन्द्रमा आदि शुद्ध श्वेत वस्तुओं के समान एकान्त शुद्ध श्वेत था।
भावार्थ भगवान् महावीर संसारतारक सर्वोत्तम धर्म प्रकाशित करके सर्वोत्कृष्ट श्रेष्ठ ध्यान-शुक्लध्यान में स्थित हुए। भगवान् का वह शुक्लध्यान (आत्म-चिन्तन की विशुद्ध धारा) अत्यन्त शुक्ल वस्तुओं से शुक्ल था, दोषरहित शुक्ल था, और शंख, चन्द्रमा आदि शुद्ध श्वेत वस्तुओं के समान पूर्णरूप से एकान्त निर्मल शुक्ल था।
ब्याख्या
___ भगवान् का सर्वश्रेष्ठ ध्यान : शुक्लध्यान इस गाथा में यह बताया गया है कि भगवान् महावीर का सर्वश्रेष्ठ शुक्ल ध्यान कैसा था ? शुक्लध्यान की साधना उन्होंने कब की थी ? आशय यह है कि भगवान् ने पहले संसार के समक्ष अनुत्तर (जिससे श्रेष्ठ दूसरा नहीं है, ऐसे ) धर्म का भलीभाँति प्रतिपादन किया, तदनन्तर उत्तम ध्यान श्रेष्ठ -शुक्लध्यान की साधना में लीन हुए । अर्थात् जब भगवान् को केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हो गया, तब वे योग निरोधकाल के दौरान सूक्ष्मकाययोग को रोकते हुए सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती नामक तृतीय शुक्लध्यान में स्थित हो जाते थे, और जब उनके समस्त योगों का निरोध हो गया, तब वे व्युपरतक्रियअनिवृत्त नामक चतुर्थ शुक्लध्यान में लीन हो जाते थे । यही शास्त्रकार बतलाते हैं - 'सुसुक्कसुक्क...."वदातसुक्कं ।' अर्थात् जो ध्यान अत्यन्त शुक्ल (श्वेत वर्ण की तरह शुक्ल है, तथा जिससे दोष हट गया है, अर्थात् जो निर्दोष शुक्ल है, अथवा अपगण्ड यानी जल के फेन के समान जो शुक्ल है, तथा शंख और चन्द्र के समान जो एकान्त व शुद्ध शुक्ल है, ऐसे द्विविध शुक्लध्यान की साधना प्रभु करते थे।
मूल पाठ अणुत्तरग्गं परमं महेसी असेसकम्मं स विसोहइत्ता । सिद्धिं गते साइमणंतपत्ते नाणेण सीलेण य दंसणेण ॥१७॥
संस्कृत छाया अनुत्तरायां परमां महर्षिरशेषकर्माणि स विशोध्य वीरः । सिद्धिं गतः सादिमनन्त प्राप्तः, ज्ञानेन शीलेन च दर्शनेन ॥१७॥
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