Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
सूत्रकृतांग सूत्र
६१६
वहाँ मरण कष्ट पाकर भी जीव मरते नहीं है तथा उनकी आयु भी बहुत लम्बी होती है) नामक नरकभूमि है, जो चिरकाल तक की स्थिति वाली होती है । (जंसी) जिस नरक में (पावचेया पया हम्मइ) पापकर्मी जनता मारी जाती है ।
भावार्थ
जिस नरक में नीचा मुँह करके लटकाये हुए तथा शरीर की खाल उधेड़े हुए नारकजीव लोहे की चोंच वाले पक्षियों द्वारा खा डाले जाते हैं । नरक की भूमि संजीवनी कहलाती है । क्योंकि मरण के समान कष्ट पाकर भी नारकी जीव आयु शेष रहने के कारण मरते नहीं हैं में पहुँचे हुए प्राणियों की उम्र भी काफी लंबी होती है । उस नरक में मारे जाते हैं ।
व्याख्या
नरक में लोहमुखी पक्षियों द्वारा घोर कष्ट
इस गाथा में नारकों की दीर्घकालीन स्थिति का संकेत किया गया है । वास्तव में नरक का नाम संजीवनी भी है । जिसका अर्थ होता है - जहाँ मृत्यु - सा कष्ट पाकर भी जीव आयुष्य-बल होने के कारण मरते नहीं हैं इसीलिए नरकभूमि संजीवनी औषधि के समान जीवन देने वाली कहलाती है क्योंकि नारकी जीव टुकड़ े-टुकड़े कर देने पर भी आयु शेष रहने के कारण मरता नहीं है । नरक की उत्कृष्ट आयु ३३ सागरोपम की है, इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं - 'चिरट्ठितीया' अर्थात् वह चिरकालीन स्थिति वाली है । नरक में गए हुए पापी मुद्गर आदि द्वारा मारे - पीटे जाते हैं । नरक में किसी खम्भे पर मुँह नीचा और पैर ऊपर करके चाण्डाल मृतशरीर की तरह उसे लटका देते हैं । फिर उसकी चमड़ी उधेड़ डालते हैं, तत्पश्चात लोहे की सी तीखी चोंच वाले कौए, गीध आदि पक्षी उसे खा जाते हैं । इस प्रकार वे नारकी जीव नरकपालों द्वारा अथवा परस्पर एक-दूसरे के द्वारा छेदन-भेदन किये जाने पर भी तथा उबाले जाने से मूच्छित हो जाने पर वेदना की अधिकता का अनुभव करते हुए भी वे मरते नहीं । नरक की पीड़ा से व्याकुल होकर वे मरना भी चाहते हैं, पर अत्यन्त पीसे जाने पर भी वे मरते नहीं है, किन्तु पारे के समान पुनः मिल जाते हैं ।
तथा उस नरक पापचेता प्राणी
मूल पाठ
तिक्खाहि सूलाहि निवाययंति वसोगयं सावययं व लद्धं ।
ते सूलविद्धा कलुणं थांति, एगंतदुक्खा दुहओ गिलाणा ॥ १० ॥
संस्कृत छाया तीक्ष्णाभिः : शूलाभिर्निपातयन्ति वशं गतं श्वापदमिव लब्धम् । ते शूलविद्धा करुण स्तनन्ति, एकान्तदुःखाः द्विधा तो ग्लानाः ॥ १०॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org