Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र उन्हें (णिच्चऽणिच्चेहि) जीवस्वरूप द्रव्य की द्रष्टि से नित्य और पर्याय-परिवर्तन की दृष्टि से अनित्य दोनों प्रकार का (समिक्ख) जानकर (से पन्ने) उन महाप्राज्ञ केवलज्ञानी प्रभु ने (दोवे व समियं धम्म उदाहु) दीपक के समान सम्यक्धर्म का कथन किया था।
भावार्थ भगवान् महावीर ने ऊपर, नीचे और तिरछे तीनों लोकों में जो भी त्रस और स्थावर जीव हैं, उन सबको द्रव्य को दृष्टि से नित्य और पर्याय (स्वर्ग, नरक और मनुष्य आदि रूप में परिवर्तन) की दृष्टि से अनित्य केवलज्ञान से सांगोपांग जानकर संसार सागर से पार करने में समर्थ श्रतचारित्ररूप धर्म को दीपक के समान पदार्थों को सम्यक् प्रकाशित करने वाला बताया है।
व्याख्या जीव के नित्यानित्य स्वरूप और धर्म का कथन
श्री सुधर्मास्वामी इस गाथा से भगवान् महावीर स्वामी के गुणों का वर्णन आरम्भ करते हैं- ऊपर, नीचे और तिरछे चौदह रज्जु ऊँचे इस समग्र लोक में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियरूप जो त्रस प्राणी हैं, तथा पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पतिरूप जो एकेन्द्रिय स्थावर प्राणी हैं । भगवान् केवलज्ञानी होने से समस्त प्राणियों को जानते हैं। प्रज्ञ यानी प्राज्ञ हैं। अत: केवलज्ञान के प्रकाश में द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि दोनों का सापेक्षदृष्टि-अनेकान्तवाद से आश्रय लेकर उन्हें नित्य और अनित्य दोनों प्रकार का भलीभांति जानकर प्राणियों को समस्त पदार्थों का स्वरूप बताने के कारण दीपक की तरह अथवा संसार-समुद्र में पड़े हुए जीवों को सदुपदेश देने से उनके लिए आश्वासन का कारण होने से भगवान द्वीप की तरह हैं। ऐसे भगवान् ने श्र तचारित्ररूप धर्म को उत्तम अनुष्ठानयुक्त या रागद्वेषमुक्त होकर या समभाव के साथ कहा था अर्थात् आचारांग सूत्र के 'जहा पुण्णरस कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थई' वचन के अनुसार भगवान् ने पुण्यवान्
१. जैनधर्म आत्मा को नित्य और अनित्य उभयात्मक मानता है। जीवस्वरूप
द्रव्यदृष्टि से आत्मा नित्य हैं क्योंकि मूलस्वरूप से आत्मा का कभी नाश नहीं होता। लेकिन पर्याय – परिवर्तन की दृष्टि से आत्मा अनित्य भी है। आत्मा मनुष्य पशु आदि के शरीर के नाश की दृष्टि से अनित्य है। यही जैनधर्म का अनेकान्तवाद है। इसलिए न तो वेदान्त या सांख्य के अनुसार आत्मा को कूटस्थनित्य मानना चाहिए और न ही बौद्धदर्शन की तरह आत्मा को एकान्त, अनित्य, क्षणभंगुर ही मानना चाहिए।
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