Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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नरकाधिकार : पंचम अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
६२७ हैं । ये शृगाल पूर्वजन्म में कृत पापों के कारण जंजीरों से बँधे हुए रहते हैं । ये निकट में स्थित नारकी जीवों को खा जाते हैं ।
__ व्याख्या
नारकों को खा जाने वाले ये खु ख्वार और भूखे गीदड़ __इस गाथा में नरक के मुख्वार और भूखे गीदड़ों का वर्णन है । ये गीदड़ भी नारकों को दण्ड देने के लिए उनके निकट ही छिपे रहते हैं। ये गीदड़ कैसे होते हैं ? इसके लिए शास्त्रकार ७ विशेषणों द्वारा उनका स्वरूप बताते हैं--(१) अनशित (भूखे) (२) महाशृगाल (विशालकाय गीदड़) (३) प्रगल्भी -- ढीठ, (४) सदा सकोप-हर समय उनकी भौंहे तनी रहती हैं, (५) अत्यन्त क्रूरकर्म किये हुए, (६) जंजीरों से जकड़े हुए एवं (७) अदूरगा - बहुत ही निकट (नारकों के रहने वाले। सचमुच ये शिकारी गीदड़ दाँव लगते ही वहाँ के निकटस्थ नारकों का सफाया कर डालते हैं । वस्तुतः ये गीदड़ भी वहाँ के नरकपालों द्वारा वैक्रिय शक्ति से बनाये जाते हैं।
मूल पाठ सयाजला नाम नदीऽभिदुग्गा पविज्जलं लोहविलीणतत्ता । जंसी भिदुग्गंसि पवज्जमाणा, एगायताऽणुक्कमणं करेंति ।।२१।।
संस्कृत छाया सदाजला नाम नद्यभिदुर्गा पिच्छिला लोहविलीनतप्ता । यस्यामभिदुर्गायां प्रपद्यमाना, एका अत्राणा: उत्क्रमणं कुर्वन्ति ।।२१।।
___अन्वयार्थ (सयाजला नाम) नरक में सदाजला नामक (नदीऽभिदुग्गा) अत्यन्त दुर्गम गहन या विषम नदी है (पविज्जलं) उसका जल क्षार, मवाद और रक्त से मैला रहता है। अथवा वह नदी अत्यन्त भारी कीचड़ से सनी है। (लोहविलोणतत्ता) तथा वह आग से पिघले हुए तरल लोहे के समान अत्युष्ण जल को धारण करती है। (अभिदुग्गंसि जंसी पवज्जमाणा) अतिविषम जिस नदी में पहुँचे हुए नारक जीव (एगायताणुक्कमणं करेंति) बेचारे अकेले और अरक्षित ही तैरते हैं।
भावार्थ नरक में सदाजला नाम की एक नदी है, जिसमें हमेशा पानी भरा रहता हैं वह नदी अत्यन्त कष्टदायिनी है। उसका पानी रक्त, मवाद एवं क्षार आदि से सदा मलिन रहता है। आग से पिघले हुए तरल लोहे के समान उसका जल अत्यन्त गर्म रहता है। उस अतिविषम नदी पर पहुँचे हुए नारकी जीव बेचारे अकेले अरक्षित और असहाय-से बने उस नदी में तैरते हैं।
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