Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन--प्रथम उद्देशक
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व्याख्या
स्त्री-मोहित सदनुष्ठानभ्रष्ट साधकों की माया इस गाथा में शास्त्रकार उन भ्रष्ट साधकों का उल्लेख करते हैं, जो संसार में फँसाने वाली नारी में आसक्त एवं उत्तम अनुष्ठान से भ्रष्ट एवं इहलोक परलोक के नाश से न डरने वाले कुछ वेषधारी पापकर्म करते हैं । परन्तु उत्कट मोह से मूढ बने वे वेषधारी पुरुष आचार्य, गुरु आदि के पूछने पर बिलकुल इन्कार करते हुए कहते हैं -- "मैं कोई ऐसे-वैसे कुल में उत्पन्न ऐरा-गैरा साधु नहीं हूँ, जो पाप कर्म के कारणस्वरूप अनुचित कर्म करूं। यह तो मेरी पुत्री के समान है। यह बाल्यकाल में मेरी गोदी में सोती थी। अतः उस पूर्व अभ्यास के कारण ही मेरे साथ ऐसा आचरण करती है । वस्तुतः मैं तो संसार के स्वरूप को भलीभाँति जानता हूँ। प्राण चले जायँ, पर मैं ऐसा व्रतभंग कदापि न करूंगा।" ।
इस प्रकार कपट करके अपने पाप को छिपाने वाला और अधिक मोहकर्म के वश हो जाता है।
मल पाठ बालस्स मंदयं बीयं, जं च कडं अवजाणई भुज्जो । दुगुणं करेइ से पावं, पूयणकामो विसन्नेसी ॥२६॥
संस्कृत छाया बालस्य मान्द्य द्वितीयं, यच्च कृतमपजानीते भूयः । द्विगुणं करोति स पापं, पूजनकामो विषण्णैषी ॥२६।।
अन्वयार्थ (बालस्स) उस मूर्ख पुरुष की (बीयं मंदयं) दूसरी मूर्खता यह है कि (जं च कडं भुज्जो अवजाणई) वह किये हुए पापकर्म को, नहीं किया कहता है (से दुगुणं पावं करेइ) इस प्रकार वह दुगुना पाप करता है। (पूयणकामो विसन्नेसी) वह जगत् में अपनी पूजा प्रतिष्ठा चाहता है, लेकिन असंयम की इच्छा करता है।
भावार्थ उस मूढ़ पुरुष की दूसरी विवेकमूढ़ता यह है कि उसने जो पापकर्म किया है, उससे फिर इन्कार करता है। इस प्रकार वह दुगुना पाप करता है । वह ऐसा इसलिए करता है कि वह जगत् में अपनी पूजा-प्रतिष्ठा चाहता है, किन्तु दूसरी ओर असंयम में लिपटा रहना चाहता है।
व्याख्या
पापकर्म करना और उसे छिपाना दोहरा पाप है इस गाथा में पूर्व गाथा में उक्त वेषधारी पापकर्मसेवी की वृत्ति का
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