Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
५७८
सूत्रकृतांग सूत्र
घेरकर वहीं रोक लेते हैं। इस तरह वे उन नारकों को नरक के उन निग्रह स्थानों में रोककर बन्द कर देते हैं।
इस प्रकार नरक के असह्य दुःखों की यह बोलती कहानी है, जिन्हें स्त्रीसंसर्ग, व्यभिचार, हत्या, चोरी, डकैती आदि भयंकर पापकर्म करने वाले जीव पाते. हैं । कहीं तो वे स्वयं ही आपस में लड़भिड़कर या मानसिक रूप से घोर दुःख पाते हैं, कहीं इन असुरों द्वारा विभिन्न प्रकार से दुःख दिये जाते हैं और कहीं नरक की भूमि के प्रकृतिकृत असह्य दुःखों का सामना करना पड़ता है। नारकी जीव कितना ही रोयें, चिल्लायें, हाय-तोबा मचाएँ, कोई उनकी सुनता नहीं, कोई उन्हें आश्वासन नहीं देता। नरकविभक्ति नाम क्यों ?
इस अध्ययन का नाम नरकविभक्ति क्यों रखा गया? यह स्पष्ट है। विभक्ति कहते हैं - विभाग को। इस अध्ययन में नरक के विभिन्न विभागों के क्षेत्रीय दु:खों, स्वयंकृत दुःखों, पारस्परिक दु:खों और परमाधार्मिक असुरकृत दुःखों का करुणाजनक निरूपण है। साथ ही विभिन्न नरकावासों में तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम शीत, उष्ण आदि स्पर्श, विकराल बीभत्स रूप, भयंकर दुर्गन्ध, तीव्र कट व तिक्त रस एवं भयंकर चीत्कारपूर्ण शब्द आदि अशुभ विषयों का नारकों को कैसा अनुभव होता है ? उनके मन पर उनकी क्या-क्या प्रतिक्रियाएँ होती हैं ? यह सब नरकविभक्ति नामक इस अध्ययन में वर्णित है। __ अब इस सम्बन्ध में क्रमप्राप्त प्रथम गाथा इस प्रकार है
मूल पाठ पुच्छिस्सऽहं केवलियं महेसि, कहंभितावा णरगा पुरत्था ? अजाणओ मे मुणि! बूहि जाणं, कहं नु बाला नरयं उति ?॥१॥
___ संस्कृत छाया पृष्टवानहं केवलिनं महर्षि, कथमभितापाः नरकाः पुरस्तात् ? अजानतो मे मुने ! ब्रू हि जानन्, कथं नु बालाः नरकमुपयान्ति ? ||१||
अन्वयार्थ
(अहं) मैंने (पुरत्था) पहले (केवलियं महेसि) केवलज्ञानी महर्षि महावीर स्वामी से (पुच्छिस्स) पूछा था कि (णरगा कहभितावा) नरक कैसे पीड़ाकारी हैं ? (मुणि) हे मुने ! (जाणं) आप इसे जानते हैं, अतः (अजाणओ मे बूहि) न जानने वाले मुझे कहिए । (बाला) मूढ़ अज्ञानी जीव (कहं नु) किस कारण से (नरयं उति) नरक को प्राप्त करते हैं ? ।
भावार्थ श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी आदि से कहते हैं-मैंने केवलज्ञानी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org