Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
५४६
सूत्रकृतांग सूत्र
व्याख्या साधक उन प्रलोभनों से दूर रहे
इस गाथा में पूर्वगाथा में वर्णित प्रलोभनों के सन्दर्भ में साधु को सावधान किया गया है कि जब भी उसके सामने ये और इस प्रकार के अन्य प्रलोभन आवें तो वह बिलकुल न ललचाए। वह दीर्घदृष्टि से उस पर विचार करे कि यह जो अमुक-अमुक वस्तुओं को देने की प्रार्थना इन महिलाओं द्वारा की जा रही है, वह स्वाभाविक है या कृत्रिम ? स्वार्थ से लिप्त है, मोहयुक्त है या परमार्थ से प्रेरित है ? मान लो, कदाचित् साधु को किसी वस्तु की आवश्यकता भी हो तो वह अपने साथी साधु को साथ लेकर किसी पुरुष या अन्य स्त्री की उपस्थिति में उस स्त्री के यहाँ प्रवेश करे और प्रासुक, कल्पनीय और ऐषणीय वस्तु जानकर ग्रहण करे। लेकिन अगर कोई शक हो और उक्त प्रार्थी महिला दुश्चरित्र प्रतीत हो तो बह उस स्त्री के यहाँ न जाए। क्योंकि इस प्रकार की दुश्चरित्र स्त्रियाँ साधु को वस्त्रपात्रादि का आमंत्रण देकर तथा थोड़ा-बहुत देकर पहले वश कर लेती हैं, फिर उसको अपने कामजाल में फंसाकर सयमभ्रष्ट कर देती हैं। कदाचित् साधु अनायास ही उसके यहाँ पहुँच गया हो तो वह अपने कल्पानुसार थोड़ा-सा कुछ लेकर वहाँ से तुरन्त वापस लौट जाए। दुबारा फिर उस स्त्री के घर जाने की इच्छा न करे। अथवा एक बार संयम लेने के बाद साधु गृहरूपी भंवर में पड़ने की फिर इच्छा न करे। उन दुश्चरित्र स्त्रियों की प्रार्थना को धोखाधड़ी समझे उसी प्रकार जैसे सूअर को चावल के दाने फैलाकर बश में कर लेते हैं । किन्तु पाश के समान शब्दादि विषयों के द्वारा बँधा हुआ अज्ञजीव स्नेहपाश को तोड़ने में समर्थ नहीं होता, बार-बार उसका चित्त व्याकुल होता है । उसे अपने कर्तव्य का भान नहीं होता। इति शब्द समाप्ति के अर्थ में आया है। 'ब्रवीमि' का अर्थ पूर्ववत् है ।
___इस प्रकार चतुर्थ अध्ययन का प्रथम उद्देशक अमरसुखबोधिनी व्याख्या सहित सम्पूर्ण हुआ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org