Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन-प्रथम उद्देशक
व्याख्या व्यभिचारिणी स्त्रियों द्वारा साधु को जाल में फंसाने का प्रयत्न इस गाथा में एक और पहलू से साधु को सावधान किया गया है कि किस प्रकार से व्यभिचारिणी स्त्रियाँ भद्र एवं संयमी साधु को अपने कामजाल में फंसा लेती हैं--- "संलोकणिज्ज....." पडिग्गाहे ।'' आशय यह है कि कई कामुक नारियाँ सुन्दर, सुडौल, स्वस्थ एवं सुरूप आत्मज्ञानी अनगार को सभ्य तरीके से कामजाल में फंसाने का प्रयत्न करती हैं। वे उक्त साधु को प्रार्थना करती हैं - "संसार सागर से रक्षा करने वाले मुनिवर ! वस्त्र पात्र, अन्न-पान आदि जिस वस्तु की आपको आवश्यकता हो तो आपको और कहीं पधारने की जरूरत नहीं, आप मेरे यहाँ पधारें। मैं आपको सब कुछ दूगी।"
अगर साधु उनके वाग्जाल में फंसकर उनकी प्रार्थना स्वीकार करके बारबार उनके यहाँ आवागमन करेगा और वस्त्रादि स्वीकार कर लेगा तो फिर उसके भ्रष्ट हो जाने की पूरी सम्भावना है ।
मूल पाठ णीवारमेवं बुज्झज्जा, णो इच्छे अगारमागंतुं । बद्ध विसयपासेहि मोहमावज्जइ पुणो मंदे ॥३१॥
॥त्ति बेमि॥ संस्कृत छाया नीवारमेवं बुध्येत, नेच्छेदगारमागन्तुम । बद्धो विषयपाशेन मोहमापद्यते पुनर्मन्दः ।।३१।।
॥ इति ब्रवीमि ॥ अन्वयार्थ (एवं) इस प्रकार के प्रलोभन को साधु (णीवारं बुज्झज्जा) सूअर को फंसाने वाले चावल के दाने के समान समझे। (अगारमागंतु णो इच्छे) ऐसी स्त्रियों की प्रार्थना पर उनके घर बार-बार जाने की इच्छा न करें। (विसयपाहि बद्ध मंदे) विषयपाश में बँधा हुआ मूढ़ साधक (पुणो मोहमावज्ज इ) पुनः-पुन: मोह को प्राप्त होता है । (त्ति बेमि) “यह मैं कहता हूँ।" ।
भावार्थ पूर्वोक्त प्रकार के प्रलोभनों को साधु सूअर को लुभाकर फँसाने वाले चावलों के दाने के समान समझे। विषयरूपी पाश से बँधा हुआ वह मूर्ख व्यक्ति बार-बार मोह को प्राप्त होता है ।
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