Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन-प्रथम उद्देशक
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भावार्थ इसके पश्चात्-स्त्री कभी श्राविका होने के बहाने से साधु के निकट आतो है और कहती है-मैं श्रमणों की सहधर्मिणी हूँ, यह कहकर वह बारबार साधु के पास आती है, बैठती है और साधु को ठगने का उपक्रम करती है । जैसे आग के पास रखा हुआ लाख का घड़ा जलकर कुछ ही क्षणों में स्वाहा हो जाता है इसी तरह विद्वान् पुरुष भी स्त्रियों से संसर्ग करके भ्रष्ट हो जाता है।
व्याख्या
स्त्री, श्राविका के बहाने साधु को फंसाती है इस गाथा में प्रस्तुत किया गया है कि मायाविनी स्त्री किस प्रकार साधु को श्राविका बनकर फंसा लेती है। मायाविनी बारी साधु के पास इस बहाने से आती है कि मैं श्राविका हूँ, इसलिए साधु की सार्मिणी हूँ। ऐसा प्रपंच रचकर वह स्त्री बार-बार साधु के सम्पर्क में आती है। घण्टों उसके पास बैठती है और धीरे-धीरे कूलबालुक तपस्वी की तरह साधु को धर्म से भ्रष्ट कर देती है ।
वास्तव में स्त्री का संसर्ग ब्रह्मचारियों के लिए महान् अनर्थ का कारण होता है । कहा भी है--
तज्ज्ञानं तच्च विज्ञानं तत्तपः स च संयमः ।
सर्वमेकपदे भ्रष्टं, सर्वथा किमपि स्त्रियः ।। वह ज्ञान, वह विज्ञान, वह तप और वह संयम सब स्त्री को विकार दृष्टि से देखते ही नष्ट हो जाते हैं, अगर सर्वांगरूप से उसे मोहदृष्टि से देख कर उसके साथ सम्पर्क कर ले, तब वह महान् अनर्थ का कारण बन जाती है। शास्त्रकार दृष्टान्त द्वारा इस बात को समझाते हैं- 'जतुकं भे जहा उवज्जोई' जिस तरह लाख का घड़ा आग के पास रखते ही पिघल जाता है वैसे ही ब्रह्मचारी का स्त्री के साथ निवास करने से वह भ्रष्ट हो जाता है। बड़े-बड़े विद्वान् भी जब स्त्रियों के साथ संवाद करने से धर्माचरण में शिथिल हो जाते हैं, तब साधारण आदमियों की तो बात ही क्या ? इसी दृष्टान्त द्वारा अगली गाथा में फिर शास्त्रकार समझाते हैं
मूल पाठ जतुकुंभे जोइउवगूढे, आसुऽभितत्त णासमुवयाइ । एवित्थियाहि अणगारा, संवासेण णासमुवयंति ॥२७॥
संस्कृत छाया जतुकुम्भो ज्योतिरुपगूढः आश्वभितप्तो नाशमुपयाति । एवं स्त्रीभिरनगाराः संवासेन नाशमुपयान्ति ॥२७॥
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