Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
५३६
सूत्रकृतांग सूत्र
संसक्त लोगों के हाथ-पैर काट लिए जाने की सम्भावना है, उनकी चमड़ी उधेड़ ली जानी सम्भव है, मांस भी नोंचा जा सकता है, उस स्त्री के स्वजनों द्वारा उत्तेजित राजपुरुष पारदारिकों को भट्टी पर चढ़ाकर उन्हें तपा भी सकते हैं, परस्त्रीलम्पट शरीर को वसूला आदि से छीलकर उस पर खार छिड़का जा सकता है । ये सब दण्ड कितने भयंकर हैं ! परस्त्रीगामी को प्रतिष्ठाहानि, अपकीर्ति आदि मानसिक tus भी कम नहीं होता । उसकी निन्दा, भर्त्सना, अपशब्दों एवं गालियों की बौछार आदि वाचिक दण्ड भी भयंकर होता है ।
1
मूल पाठ अदु कण्णणासच्छेदं, कंठच्छेदणं तितिक्खंती
इति इत्थ पावसंतत्ता, न य बिति पुणो न काहिति ॥ २२ ॥ संस्कृत छाया
अथ कर्णनासिकाच्छेदं, कण्ठच्छेदनं तितिक्षन्तो
1
इत्यत्र पापसंतप्ताः, न च ब्रुवते न पुनः करिष्यामः ||२२||
अन्वयार्थ
(पावसंवत्ता) पाप की आग में जलते हुए पुरुष (इत्थ) इस लोक में ( कण्णनासच्छेद ) कान और नाक का छेदन एवं (कंठच्छेदणं) कण्ठ का छेदन ( तितिक्खती) सहन कर लेते हैं । ( न य बिति) परन्तु यह नहीं कहते कि ( पुणो न काहिति ) अब हम फिर पाप नहीं करेंगे ।
भावार्थ
पाप से सन्तप्त पुरुष इस लोक में कान और नाक के छेदन एवं कण्ठ का छेदन तो सह लेते हैं, लेकिन वे मूढ़ यह वादा नहीं करते कि अब भविष्य में हम पाप नहीं करेंगे ।
व्याख्या
परस्त्रीगामी द्वारा भयंकर दण्ड सहन, किन्तु पाप से विरत नहीं
इस गाथा में परस्त्रीगामी की कठोर मनोवृत्ति और साहस का परिचय दिया गया है कि वे अपने पापकर्म से सन्तप्त होकर नरक के सिवाय इस लोक में किये हुए पाप के दण्डस्वरूप कान और नाक तथा कण्ठ का छेदन तो सह लेते हैं, परन्तु मन में ऐसा दृढ़ संकल्प करके कभी वचनबद्ध नहीं होते कि भविष्य में हम ऐसा कुकृत्य नहीं करेंगे । सच है, पापी पुरुष इस लोक और परलोक में मिलने वाली भयंकर सजा एवं यातना तो स्वीकार कर लेते हैं, पर पापकर्म से निवृत्त नहीं होते ।
मूल पाठ सुयमेयमेवेस इत्थी वेदेति हु सुयक्खायं
एवं पिता वदित्तावि, अदुवा कम्मुणा अवकरेंति ॥२३॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org