Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
का शिकार करते हैं, किन्तु यहाँ वीर वे ही माने जाते हैं जो हिंसा आदि पापों से विरत हैं, कर्मों को विदारण करने के कारण वे साहसी वीर हैं, क्रोध-माया आदि कषायों से दूर रहते हैं, आरम्भों को छोड़कर संयमी नरवीर का वाना पहने हुए हैं, जो मन-वचन-काया से किसी भी प्राणी का वध नहीं करते, पापों से निवृत्त हैं । और ऐसे वीर ही वीतरागी नरवीरों के समान प्रशान्त हैं, अर्थात् विषय-कषायों से निवृत्त होने के कारण प्रशान्तात्मा हैं । वे ही मुक्ति के समान शान्ति स्वरूप हैं।
वीर पुरुष परीषहों को कैसे सहन करे ? इसके लिए आगामी गाथा में उपदेश देते हैं
मूल पाठ णवि ता अहमेव लुप्पए, लुप्पंति लोयंसि (मि) पाणिणो। एवं सहिएहि पासए, अणिहे से पुठे अहियासए ॥१३॥
संस्कृत छाया नाऽपि तैरहमेव लुप्ये, लुप्यन्ते लोके प्राणिनः एवं सहितौः (सहितः) पश्येत्, अनिहः स स्पृष्टोऽधिसहेत ।।१३।।
अन्वयार्थ (सहिएहि) ज्ञान वगैरह श्री से सम्पन्न पुरुष (एवं) इस प्रकार (पासए) विचार करे, देखे, कि (अहमेव) केवल मैं ही (ता) उन शीत, उष्ण आदि के द्वाराउनके दु:ख विशेष से, (वि) नहीं (लुप्पए) पीड़ित किया जाता, (लोयंसि) इस लोक में (पाणिणो) अन्य प्राणी भी (लुप्पंति) इनसे पीड़ित होते हैं या किये जाते हैं । अतः (पुट्ठ) परीषहों का स्पर्श पाया हुआ (से) वह संयमसाधक मुनि (अणिहे) क्रोधादि, राग-द्वष-मोह से रहित होकर (अहियासए) उन्हें सहन करे।।
भावार्थ ज्ञानादि सम्पन्न पुरुष यह सोचे कि सिर्फ मैं अकेला ही सर्दी, गर्मी आदि के कष्टों से पीड़ित नहीं किया जाता, अपितु संसार में जो अन्य प्राणी हैं, वे भी इनसे पीड़ित किये जाते हैं । अतः शीतोष्ण आदि परीषह आ पड़ने पर राग-द्वष-कषाय से रहित होकर समभावपूर्वक सहन करे ।
व्याख्या
परीषह आने पर वीरपुरुष का चिन्तन इस गापा का आशय स्पष्ट है। साधारण व्यक्ति परीषह (शीत, उष्ण
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