Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र जवानी में ही मर जाता है । अथवा इस पंचमकाल में भरतक्षेत्र में सौ वर्ष की बहुत बड़ी आयु मानी जाती है, वह भी सौ वर्ष के अन्त में समाप्त हो ही जाती है । तथा वह आयु सागरोपमकाल की अपेक्षा कुछ एक निमिष के समान ही है। इसलिए उसे भी थोड़े दिन के निवास के समान ही समझें । आयु की ऐसी अनित्यता जानकर क्षुद्र प्रकृति के जीव ही शब्दादि विषयों में आसक्त हो सकते हैं, बुद्धिमान साधक नहीं । जो तुच्छ प्रकृति के अविवेकी जीव शब्दादि विषयों में फंस जाते हैं, वे मृत्यु के बाद दुर्गति में जाकर अनेक यातनाएँ सहते हैं ।
मूल पाठ जे इह आरंभनिस्सिया अत्तदंडा एगंतलूसगा। गंता ते पावलोगयं, चिररायं आसुरियं दिसं ॥॥
संस्कृत छाया ये इह आरम्भनिश्रिता आत्मदण्डा एकान्तलूषकाः । गन्तारस्ते पापलोककं चिररात्रमासुरी दिशम् ।।६।।
अन्वयार्थ (इह) इस लोक में (जे) जो मनुष्य (साधक) (आरम्भनिस्सिया) आरम्भ में संसक्त रचे-पचे रहते हैं। जो (अत्तदण्डा) अपनी आत्मा को दण्ड देते हैं, (एगंतलू सगा) एकान्तरूप से प्राणियों की हिंसा करते हैं, (ते) वे (चिरराय) दीर्घकाल तक (पावलोगयं) नरक आदि पापलोकों में (गता) जाते हैं। तथा वे (आसुरियं) असुरसम्बन्धी (दिसं) दिशा को भी जाते हैं ।
भावार्थ जो साधक इस लोक में आरम्भ में आसक्त, अपनी आत्मा को दण्ड देने वाले तथा एकान्तरूप से जीवहिंसक हैं, वे चिरकाल तक के लिए नरकादि पापलोकों में जाते हैं। यदि बालतप आदि से वे देवता बने भी तो अधम असुरसंज्ञक देव बनकर आसुरीयोनि में जाते हैं ।
व्याख्या आरम्भासक्त साधकों के कुकृत्यों का दुष्परिणाम
इस गाथा में आरम्भ में संसक्त रहने वाले साधकों के दुष्कर्मों का दुष्परिणाम बताकर सुविहित साधकों को सावधान रहने के लिए सूचित किया गया है'जे इह आरम्भनिस्सिया "आसुरियं दिसं ।'
___ आशय यह है कि महामोह के प्रभाव से जिनका चित्त आकुल है वे लोग इस मनुष्य लोक में साधकजीवन स्वीकार करने के बाद भी सावद्यानुष्ठानरूप हिंसाजनक कुकृत्यों में अहर्निश रचे-पचे रहते हैं, इस प्रकार वे अपनी आत्मा को ही दण्ड
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