Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन - प्रथम उद्देशक
पियg भाइकिङगा, णत्तू किडगा य सयणकिडगा य । Paataar fasगा पच्छन्नपई महिलियाणं
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अर्थात् — प्रिय पुत्र, भाई, प्रिय नाती, तथा किसी स्वजन आदि संसारी सम्बन्ध के बहाने से गुप्त पति बना लेना तो स्त्रियों की नीति है ।
इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं— 'सुहुमेणं तं परिक्कम्म ।'
छन्नपएण- - उन कामिनियों का साधु को शीलभ्रष्ट करने का दूसरा तरीका गूढ़ अर्थ वाले शब्दों के प्रयोग से फँसाने का है । इस प्रकार का कोई श्लोक, कविता या भजन बनाकर वे साधु के पास आकर सुनाती हैं, जिससे उस श्लोक, कविता या भजन आदि में उक्त कामिनी का मनोभाव झलक सके। इस सम्बन्ध में वृत्तिकार ऐसा गुप्त अर्थ वाला एक श्लोक प्रस्तुत करते हैं
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काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य, मेधान्धकारासु च शर्वरीषु । मिथ्या न भाषामि विशालनेत्रे ! ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु ॥
इस श्लोक के चारों चरणों के प्रथम अक्षरों की योजना करने से 'कामेमि ते' ( मैं तुम्हें चाहती हूँ ) यह वाक्य बनता है । अथवा गुप्त नाम के द्वारा या गूढ़ार्थक मधुर वार्तालाप करके वे अपना जाल रचती हैं। स्त्रियाँ यह कामजाल कैसे बिछाती हैं, और साधु कैसे फँस जाता है ? इसके सम्बन्ध में उत्तरार्ध में शास्त्रकार कहते हैं - 'उन्वापि ताउ जाणंसु, जहा लिस्संति भिक्खुणो ।' वे चालाक स्त्रियाँ साधु को अपने कामजाल में फँसाने के अनेक तरीके जानती हैं, जिससे भोलेभाले साधक भी वेदमोहनीय कर्मोदयवश उनके कपटजाल में फँसकर उन स्त्रियों में आसक्त हो जाते हैं ।
वे चालाक स्त्रियाँ शीलवान् और सावधान साधक को भी किस प्रकार मोहित कर लेती हैं, यह अगली गाथा में शास्त्रकार बताते हैं
मूल पाठ
पासे भिसं णिसीयंति अभिक्खणं पोसवत्थं परिहिति । कार्य अहेवि दंसंति, बाहू उद्घट्टु कक्खमणुब्वज्जे ॥ ३ ॥
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संस्कृत छाया
पार्श्वे भृशं निषीदन्ति, अभीक्ष्णं पोषवस्त्रं परिदधति । कायमधोऽपि दर्शयन्ति, बाहुमुद्धत्य कक्षमनुव्रजेयुः || ३||
अन्वयार्थ
( पासे) साधु के पास (भिसं णिसीयंति) बहुत अधिक बैठती हैं, (अभिक्खण ) बार-बार ( पोसवत्थं ) सुन्दर कामोत्पादक वस्त्रों को ढीला होने का बहाना बनाकर ( परिहित ) पहनती हैं । (कार्य अहेवि दंसंति) शरीर के निचले भाग (गुप्तांग ) को
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