Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र संस्कृत छाया न तासु चक्षुः संदध्यात्, नाऽपि च साहसं समभिजानीयात् । न सहितोऽपि विहरेद्, एवमात्मा सुरक्षितो भवति ॥५॥
अन्वयार्थ (तासु) उन स्त्रियों पर टकटकी लगाकर (चक्खु नो संधेज्जा) आँख न लगाए, न गड़ाए, आँख से आँख न मिलाए। (नोवि य साहसं समभिजाणे) उनके साथ कुकर्म करने की सम्मति-स्वीकृति भी न दे। (सहियंपि नो विहरेज्जा) उनके साथ ग्राम-नगर आदि में विहार न करे, (एव) इस प्रकार (अप्पा सुरक्खिओ होइ) साधु की आत्मा सुरक्षित होती है।
भावार्थ साधु स्त्रियों पर अपनी दृष्टि न गडावे, न टकटकी लगाकर देखे या आँख से आँख न मिलाए तथा उनके साथ कुकर्म करने का साहस न करे, न ही कुकर्म करने की स्वीकृति दे। उनके साथ ग्राम आदि में विहार न करे, इस प्रकार साधु की आत्मा सुरक्षित होती है।
व्याख्या स्त्रियों के वशीभूत न होने के नुस्खे
इस गाथा में उन बातों का निषेध साधु के लिए किया गया है, जो उसके शील को भ्रष्ट कर देती हैं। और खास तौर से स्त्रीजन्य उपसर्ग हैं। ऐसे अनुकूल उपसर्गों में कभी तो स्त्री स्वयं किसी चीज का प्रलोभन देती है, कुकर्म में प्रवृत्त करती है, कभी साधु उसे देख कर स्वयं शील से डिगने लगता है। ऐसी लड़खड़ाती अवस्था से साधु को कौन उबार सकता है ? उसकी आत्मा की कौन रक्षा कर सकता है ? शास्त्रकार कहते हैं-'एवमप्पा सुरक्खिओ होइ ।' अर्थात् ये और इनके समान अन्य कई प्रकार के कामोत्तेजक या शीलनाशक कामजाल हैं, जिनसे साधु को स्वयं बचना चाहिए। आशय यह है कि साधु स्त्रियों द्वारा की जाने वाली पूर्वोक्त प्रार्थनाओं को मोहपाश समझे, ऐसी स्त्रियों पर अपनी दृष्टि न दे, या उनकी दृष्टि से अपनी दृष्टि न मिलावे । प्रयोजनवश यदि उनकी ओर देखना पड़े तो क्या करे ? इसके लिए कहा है
कार्येऽपोषन मतिमान निरीक्षते योषिदंगमस्थिरया।
अस्निग्धया दृशाऽवज्ञया ह्यकुपितोऽपि कुपित इव ।। अर्थात् काम पड़ने पर बुद्धिमान् स्त्री के अंग की ओर जरा-सी अस्थिर, अस्निग्ध, रूखी एवं अवज्ञापूर्ण दृष्टि से देखे, ताकि अकुपित होते हुए भी बाहर से कुपित-सा प्रतीत हो।
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