Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
४५६
सूत्रकृतांग सूत्र
भावार्थ अन्यतीर्थियों द्वारा पूर्वोक्त पूर्वपक्ष प्रस्तुत करने के पश्चात् मोक्षविशारद--ज्ञान-दर्शन-चारित्र की प्ररूपणा करने में निपूण साध उन अन्यतीथियों से यह कहे कि आप जो इस प्रकार आक्षेपयुक्त वचन कहते हैं, सो आप असत्पक्ष का सेवन करते हैं।
व्याख्या
मोक्षविशारद साध द्वारा अन्यतीथिकों को उत्तर
पूर्वगाथाओं में सुविहित साधुओं पर अन्यतीथियों द्वारा किये गए आक्षेपात्मक वचनों के उत्तर में शास्त्रकार उत्तरपक्ष प्रस्तुत करते हैं-'अह ते परिभासेज्जा "...' चेव सेवह ।'
प्रश्न होता है, सुविहित साधुओं पर अन्यतीर्थिक लोग गलत आक्षेप लगाएँ या लोगों में साधुओं की या साधुधर्म की निन्दा करें तो क्या उसे वह चुपचाप सहन कर ले या उसका प्रतिवाद करे, भ्रान्ति में पड़े हुए उन लोगों को यथार्थ वस्तुस्थिति समझाए ? शास्त्रकार का आशय यही प्रतीत होता है कि अगर साधु मोक्षमार्ग का प्ररूपण करने में निपुण (मोक्षविशारद) है तो उसे अवश्य ही अन्यतीथिकों से प्रतिवाद करना चाहिए।
___ इसका रहस्य यह है कि अगर विद्वान् एवं वस्तुतत्त्वप्रतिपादन में निपुण साधु अन्यतीथियों द्वारा लगाये गये ऐसे मिथ्या आक्षेपों को चुपचाप समभावपूर्वक सह लेता है, बदले में कुछ नहीं कहता है तो उसकी स्वयं की आत्मा के लिए तो ठीक है, कर्मों की निर्जरा होनी सम्भव है, किन्तु संघीय दृष्टि से ऐसा करना उचित नहीं होता। हो सकता है, चुपचाप रहने से आम जनता, जो कि वस्तुतत्त्व से अनभिज्ञ होती है, वह यही समझ लेती है कि इनके धर्म में या साधुवर्ग में कोई दम नहीं है । ये तो गृहस्थों जैसे ही अपने-अपने दायरे में अपने-अपने गुरुशिष्यों में मोहवश बँधे हुए हैं । इस प्रकार एक ओर संघ (धर्मतीर्थ) की अवहेलना हो, और दूसरी
ओर साधु संस्था के प्रति जनता की अश्रद्धा बढ़े, यह दोहरी हानि है । इससे संघ में नये मुमुक्षु साधुओं का प्रवेश तथा सद्गृहस्थों का व्रतधारण रुक जाएगा। इस लिए शास्त्रकार ने दूरदशिता से सोचकर इस गाथा के द्वारा मार्गदर्शन दिया है कि ऐसे समय में मोक्ष विशारद साधु चुपचाप न बैठे, वह उन आक्षेपकर्ताओं से प्रतिवाद के रूप में कहे कि आपने जो हमारे साध्वर्ग पर सरागस्थ एवं परस्पर आसक्त होने का आक्षेप लगाया, वह सरासर गलत है, दुष्पक्ष (मिथ्यापूर्वपक्ष) से युक्त है। अथवा आप ऐसा कहकर राग और द्वषरूप दो पक्षों का सेवन करते हैं। आपको अपने पक्ष के प्रति राग-लगाव है, जो कि दोषयुक्त है, फिर भी आप उसका समर्थन करते हैं। हमारा सिद्धान्त दोषरहित है, तथापि आप उसे दूषित बतलाते हैं,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org