Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
व्याख्या
स्त्रीसंसर्ग विमुख : सर्व-उपसर्ग विजेता
जिन साधकों ने स्त्रीसंसर्ग को अनर्थकर तथा परिणाम में कटु फल देने वाला समझकर तिलांजलि दे दी है, तथा कामोत्तेजक वस्त्र, अलंकार, पुष्पमाला, सुगन्धित पदार्थ आदि कामशृङ्गारों का भी त्याग कर दिया है, वे क्षुधा, पिपासा, अरति, स्त्रीचर्या आदि सभी अनुकल-प्रतिकूल उपसर्गों को मिनटों में जीत लेते हैं । इतना ही नहीं, उपसर्गों के आने पर भी वे उनको अपने पर हावी नहीं होने देते, न अनुकल-प्रतिकूल उपसर्गों के समय क्षुब्ध होते हैं और न ही धर्माचरण का त्याग करते हैं। वे साधक प्रसन्नतापूर्वक सुसमाधि में स्थिर रहते हैं। इसे ही शास्त्रकार कहते हैं-'जेहिं नारीण""""ठिया सुसमाहिए।' जो कामभोगासक्त एवं स्त्रीसंसर्ग आदि परीषहों एवं उपसर्गों से पराजित हो जाते हैं, वे आग पर पड़ी हुई मछली की तरह राग की आग में जलते-तड़पते हुए अशान्तिपूर्वक रहते हैं ।
मूल पाठ एए ओघं तरिस्संति, समुद्द ववहारिणो । जत्थ पाणा विसन्नासि, किच्चंती सयकम्मुणा ॥१८॥
संस्कृत छाया एते ओघं तरिष्यन्ति समुद्र व्यवहारिणः । यत्र प्राणा विषण्णाः कृत्यन्ते स्वकर्मणा ॥१८॥
अन्वयार्थ (एए) अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों को जीतने वाले ये पूर्वोक्त पुरुष (ओघं) संसार को (तरिस्संति) पार करंगे (समुदं ववहारिणो) जैसे समुद्र के आश्रय से व्यापार करने वाले वणिक् समुद्र को पार करते हैं। (जत्थ) जिस संसार में (विसन्नासि) पड़े हुए (पाणा) प्राणी (सयकम्मुणा) अपने-अपने कर्मों से (किच्चंती) पीड़ित किये जाते हैं।
भावार्थ अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को जीतकर महापुरुषों द्वारा आचरित मार्ग का अनुसरण करने वाले धीर साधक, जिस संसारसागर में पड़े हुए प्राणी अपने कर्मों के प्रभाव से नाना प्रकार की पीड़ा पाते हैं, उस संसारसागर को पार करेंगे, जिस तरह समुद्रयात्रा करके दूसरे पार जाकर व्यापार करने वाले वणिक् समुद्र आदि को पार कर लेते हैं।
व्याख्या उपसर्ग-विजेता साधक ही संसारसागर-पारगामी होता है
इस गाथा में बताया गया है कि अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों को जीतने वाले
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