Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-चतुर्थ उद्देशक
४६७ मुनि संसारसागर पार कर लेते हैं। कैसे ? इसी को दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं--- 'एए ओघं तरिस्संति समुदं ववहारिणो।'
आशय यह है कि जैसे सामुद्रिक व्यापारी समुद्र की छाती पर अपनी माल से लदी जहाज चलाकर लवणसमुद्र को पार कर लेते हैं, वैसे ही मोक्षयात्री साधक भी भावरूपी ओघ---संसारसागर को संयम या धर्मरूपी जहाज के द्वारा पार कर लेंगे।
परन्तु जो लोग स्त्रीसंसर्ग के कारण संसारसागर में पड़े हुए हैं, वे जीव अपने किये हुए असातावेदनीय के उदयरूप पापकर्मों के प्रभाव से दु:ख भोगते हैं ।
मूल पाठ तं च भिक्खू परिणाय, सुन्वते समिते चरे । मुसावायं च वज्जिज्जा, अदिनादाणं च वोसिरे ॥१९॥
संस्कृत छाया तच्च भिक्षुः परिज्ञाय सुव्रतः समितश्चरेत् । मृषावादञ्च वर्जयेत्, अदत्तादानं च व्युत्सृजेत् ।।१६।।
अन्वयार्थ (भिक्खू ) साधु (तं च परिण्णाय) पूर्वोक्त बातों को जानकर (सुव्वते) उत्तम व्रतों से युक्त तथा (समिते) पंचसमितियों से युक्त रहकर (चरे) विचरण करे । (मुसावायं च वज्जिज्जा) मृषावाद को छोड़ दे (अदिनादाणं च वोसिरे) और अदत्तादान का त्याग कर दे।
भावार्थ पूर्वोक्त गाथाओं में जो बातें (अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्ग के सम्बन्ध में) कही गयी हैं, उन्हें ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से मषावाद एवं अदत्तादान के त्याग के साथ ही उत्तम सुव्रती एवं समितियुक्त साधक उपसर्गों की गुलामी या पराजितता का त्याग करे ।
व्याख्या
उपसर्गविजयो साधु कौन, क्या करे ? पहले कहा जा चुका है कि "स्त्रियाँ वैतरणी की तरह दुस्तर हैं, अत: जो स्त्रीसंसर्ग का त्याग कर देते हैं, वे संसारसागर को पार कर लेते हैं, किन्तु जो स्त्रीसंसर्गी हैं, वे स्वकर्मों से पीड़ित किये जाते हैं।” इन सब बातों को सुव्रती और पंचसमितिधर साधु भलीभाँति जानकर - अर्थात् स्त्रीसंसर्ग को त्याग करने योग्य तथा संयम को अपनाने योग्य समझकर संयम का अनुष्ठान करे।
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