Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
आर्यमार्ग, जो कि परम समाधि से युक्त है, आर्य का अर्थ है-जो समस्त त्याज्य बातों से दूर हो । ऐसा जो मार्ग है, वह आर्यमार्ग है। अर्थात् जो जैनेन्द्रशासनप्रतिपादित परमशान्ति का उत्पादक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्ष का मार्ग- आर्यमार्ग है। यह आर्यमार्ग ही मोक्षसुख का कारण है, एकान्त शान्ति का उत्पादक है, इससे बढ़कर सुख का मार्ग और कौन-सा हो सकता है ? मनोज्ञ आहार आदि को जो सुख का कारण कहा है, यह भी ठीक नहीं। क्योंकि मनोज्ञ आहार से कभी-कभी हैजा (विशूचिका) आदि अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, इसलिए मनोज्ञ आहार एकान्तरूप से सुख का कारण नहीं है। वास्तव में देखा जाय तो विषयजन्य सुख दु:ख के प्रतिकार का हेतु होने से वह सुख का आभासमात्र है, वास्तविक सुख नहीं है । वह तो दुःख का ही कारण होता है। वैषयिक सुख में दुःखों का मिश्रण रहता है, अतः वह विषमिश्रित भोजन के समान वस्तुतः दुःखरूप ही है। मूढ़पुरुष ही उसे सुख मानते हैं। जो सुख इन्द्रिय या पदार्थों के आश्रित है, वह पराधीन है। इन्द्रियों के विकृत हो जाने या पदाथों के मिलने, न मिलने पर आधारित होने से पराधीन है, दुःखरूप है। त्याग, तप, वैराग्य, ध्यान, साधना एवं भोजन आदि की परतंत्रता से मुक्ति आदि स्वाधीन सुखात्मक हैं। अतः दुःख रूप, इन्द्रियविषयों को सुखरूप मानना मृगमरीचिका के समान सुखभ्रम है । कहा भी है
दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमान , सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःखबुद्धिः। उत्कीर्णवर्णपदपंक्तिरिवान्यरूपा, सारूप्यमेति विपरीतगतिप्रयोगात् ॥
--- अज्ञानी विवेकमूढ़ व्यक्तियों की गति, मति व दृष्टि कैसी विपरीत होती है ? यह देखिये ---जो पंचेन्द्रियविषय दु:खरूप हैं, उन्हें वे सुखरूप मानते हैं, और जो यम, नियम, तप, संयम आदि सुखरूप हैं, उन्हें दुःखरूप समझते हैं । जैसे किसी धातु पर खुदे हुए अक्षरों की पंक्ति अंकित की जाती है, तो वह देखने पर उलटी दिखाई देती है, लेकिन जब उसे मुद्रित किया जाता है, तब वह सीधी हो जाती है। इसी तरह संसारी जीवों की सुख-दुःख के विषय में उलटी समझ होती है। विषयभोग को दुःख और नियमादि को सुख समझने से उनका रूप ठीक प्रतीत होता है। अतः दुःखरूप विषयभोग परमानन्दस्वरूप एकान्तिक और आत्यन्तिक मोक्ष सुख का कारण कैसे हो सकता है ? तथा केश का लुंचन, पृथ्वी पर शयन, भिक्षा माँगना, दूसरे द्वारा किया गया अपमान सहन करना, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, दंशमशक आदि परीषहसहन आदि को जो दुःख का कारण बताया है; वह भी उनके लिए है, जो लोग परमार्थदर्शी नहीं हैं. अत्यन्त दुर्बल हृदय हैं, परन्तु जो महान् दृढ़धर्मी साधक हैं, परमार्थदर्शी हैं, आत्मस्वभाव में लीन हैं, स्वपरकल्याण में प्रवृत्त हैं, उनके लिए ये सब साधनाएँ दुःखरूप नहीं हैं, बल्कि आत्मस्वाधीनतारूप सुख की जननी हैं। उनकी महान् शक्ति के प्रभाव से ये सब सुखसाधनस्वरूप हैं, दुःखरूप नहीं । अतः सम्यग्ज्ञान
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