Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन - चतुर्थ उद्देशक
जहा नाम सिरिघराओ कोइ रयणाणि घेत्तणं I अच्छेज्ज राहुतो कि णाम ततो न घेप्पेज्जा ? ॥५५॥
अर्थात् -- जैसे कोई व्यक्ति तलवार से किसी का सिर काटकर कहीं चुपचाप पराङ्मुख होकर या छिपकर बैठ जाय, तो क्या इस प्रकार उदासीनता धारण कर लेने से उसे अपराधी मानकर पकड़ा नहीं जाता ? तथा कोई मनुष्य यदि जहर की घूँट पीकर चुपचाप रहे या उसे कोई देखे नहीं, तो क्या दूसरे के न देखने से वह विषपान का फल मृत्यु प्राप्त नहीं करेगा ? इसी तरह यदि कोई व्यक्ति किसी धनाढ्य के भण्डार से बहुमूल्य रत्नों को चुराकर पराङ्मुख हो छिपकर बैठ जाए तो क्या वह चोर समझकर पकड़ा नहीं जाएगा ?
कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कोई मनुष्य दुष्टतापूर्वक या मूर्खतावश किसी का सिर काटकर, या विष पीकर या रत्न चुराकर मध्यस्थ वृत्ति धारण कर ले तो भी वह निर्दोष नहीं हो सकता । दोष या अपराध करने का विचार तो उसने उस अकृत्य के करने से पहले कर ही लिया था, फिर उस कुकृत्य को करने में प्रवृत्त हुआ, तब दोष संलग्न हो गया और फिर उस दोष को छिपाने के लिए वह छिपकर या चुपचाप एक कोने में उदासीन होकर बैठ गया, यह भी दोष है, इसलिए दोष तो कुकार्य करने से पूर्व, करते समय और करने के पश्चात् --यों तीनों समय में है । फिर उसे निर्दोष कैसे कहा जा सकता है; उसी प्रकार कोई व्यक्ति किसी स्त्री की मैथुन सेवन करने की प्रार्थना मात्र से उस कुकृत्य में प्रवृत्त हो जाता है तो उस समय उसे रागभाव व मैथुन का विचार ( जो कि पापरूप है ) आये बिना न रहेगा, तत्पश्चात् मैथुन में प्रवृत्ति करते समय भी उसमें तीव्र रागभाव होना अवश्यम्भावी है | चाहे वह स्त्री के अंगों को स्पर्श करे या न करे, चाहे अन्य अंगों को ढक दे, फिर भी मन से तो तीव्र रागभाव के कारण कामोदय होगा ही । एक बार कामभोग का सेवन करने के बाद बार-बार उस स्त्री के साथ कामसेवन में प्रवृत्त होना सम्भव है । इस तरह पुनः पुनः मैथुनसेवन, तीव्र रागभाव, स्त्री के प्रति मोह, उसकी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति, सन्तानोत्पत्ति, उनका पालन-पोषण आदि मोहराजा का विषचक्र चलता रहेगा । इसीलिए मैथुनसेवन के विषय में महर्षियों ने अनेक दोष बतलाये हैं.
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प्राणिनां बाधकं चैतच्छास्त्र गीतं महर्षिभिः । नलिकाataणक प्रवेशज्ञाततस्तथा
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१. दशवैकालिकसूत्र में भी कहा है
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मूलमेयं महम्मस्स महादोसस मुस्सय तम्हा मेहुण संसग्गं निग्गंथा वज्जयंतिणं ॥
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