Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र टंकण जाति के म्लेच्छ जब किसी प्रबल शक्तिशाली पुरुष की सेना द्वारा हरा कर खदेड़ दिये जाते हैं, तब वे आखिर पर्वत का ही आश्रय लेते हैं, इसी प्रकार अन्यतीर्थी लोग वाद-विवाद में परास्त हो जाते हैं, तब वे और कोई उपाय अपनी खीझ उतारने का न देखकर गाली-गलौज, आक्षेप, असभ्य शब्दों की बौछार या लाठी आदि से प्रहार का ही सहारा लेने पर उतारू हो जाते हैं। ऐसे समय में उन अन्यतीर्थियों के साथ प्रत्याक्रमण या हिंसक प्रतिकार, आक्रोश आदि का आश्रय लेना सुविहित विश्वबन्धु साधु के लिए जरा भी उचित नहीं है। वृत्तिकार कहते हैं
अक्कोस-हणण-मारण-धम्मभंसाण बालसुलभाणं ।
लाभं मन्नइ धीरो जहुत्तराणं अभामि अर्थात-गाली देना, मारपीट करना, प्रहार करना या धर्म भ्रष्ट करना, ये सब कार्य नादान निपट अज्ञानी बच्चों के से हैं, धीर पुरुष इन बातों का उत्तर न देना ही लाभदायी समझते हैं ।
मूल पाठ बहुगुणप्पगप्पाइं, कुज्जा अत्तसमाहिए । जेणऽन्ने णो विरुज्झज्जा, तेण तं तं समायरे ॥१६॥
संस्कृत छाया बहुगुणप्रकल्पानि कुर्यादात्मसमाधिक: । येनाऽन्यो न विरुध्येत, तेन तत्तत् समाचरेत ।।१६।।
अन्वयार्थ (अत्तसमाहिए) जिनकी चित्तवृत्ति समाधियुक्त--- प्रसन्न है, वह मुनि (बहुगुणप्पगप्पाइं) अन्यतीर्थी के साथ विवाद के समय अनेक गुण उत्पन्न हों, इस प्रकार के अनुष्ठान (कुज्जा) करे। (जेण) जिससे (अन्ने) दूसरा--प्रतिपक्षी व्यक्ति (णो विरुज्झज्जा) अपना विरोधी न बने, (तं तं समायरे) उस कार्य को करे।
भावार्थ अन्यतीथिकों के साथ विवाद करते समय प्रशान्तचित्त मुनि अपनी चित्तवृत्ति को प्रसन्न रखता हुआ ऐसे प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन आदि का प्रयोग करे, जिससे अनेक गुणों-स्नेह, सद्भावना, आत्मीयता, धर्म के प्रति आकर्षण, साधुसंस्था के प्रति श्रद्धा, वीतराग देवो के प्रति बहुमान (आदरभाव) को प्राप्ति हो, अथवा स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष का निराकरण हो । मुनि अपना आचरण और ब्यवहार ऐसा रखे, जिससे प्रतिपक्षी व्यक्ति विरोधी न बन जाए ।
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