Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
कोहं माणं च मायं च लोहं पंचेंदियाणि य ।
दुज्जयं चेवमप्पाणं, सध्वमप्पेजए जियं ।। अर्थात्--आत्मा के लिए क्रोध, मान, माया और लोभ तथा पाँचों इन्द्रिय ये दुर्जय हैं। एक अपनी आत्मा को जीत लेने पर सभी जीत लिये जाते हैं ।
ऐसे सुविहित उत्तम आचारवान साधुओं पर भी आक्षेपरूपी उपसर्ग कैसे आते हैं ? इसे आगामी गाथा में बताते हैं
मल पाठ तमेगे परिभासंति, भिक्खूयं साहुजोविणं । जे एवं परिभासंति, अंतए ते समाहिए ॥८॥
संस्कृत छाया तमेके परिभाषन्ते, भिक्षुकं साधुजीविनम् । य एवं परिभाषन्ते, अन्तके ते समाधेः ।।८।।
अन्वयार्थ (साहुजीविणं) परोपकार आदिरूप सम्यक् आचरणपूर्वक अथवा उत्तम आचार-विचारपूर्वक जीवन जीने वाले (तं भिक्खूयं) उस साधु के विषय में (एगे) कोई-कोई अन्यदर्शनी (परिभासंति) आगे कहे जाने वाले आक्षेपात्मक वचन कहते हैं। परन्तु (जे) जो नासमझ लोग (एवं) इस प्रकार के आक्षेपयुक्त वचन (परिभासंति) कहते हैं, बकते हैं, (ते) वे (समाहिए अंतए) समाधि से बहुत दूर हैं।
भावार्थ स्वपरकल्याणरूप उत्तम साध्वाचारपूर्वक जीवन जीने वाले उस सुविहित साधु के विषय में कई अन्यदर्शनी आक्षेपात्मक वचन कहते हैं। परन्तु इस प्रकार बकवास करने वाले राग-द्वेष-कषाय-उपशान्तिरूप समाधि से कोसों दूर हैं।
व्याख्या आक्षेपात्मक वचनरूप उपसर्ग
___ निरवद्य संयमानुष्ठानपूर्वक स्वपरकल्याणरूप उत्तम आचार पालन करके जीने वाले सुविहित साधु पर भी कई अन्यदर्शनी कई प्रकार के आक्षेपात्मक वाक्यों द्वारा कीचड़ उछालते हैं, उस समय सुविहित, शान्त, समाधिस्थ साधु क्या चिन्तन करे ? यही 'अंतए ते समाहिए' इस पंक्ति के द्वारा शास्त्रकार ने इस गाथा में उपसर्ग का स्वरूप बताकर अभिव्यक्त कर दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि उस समय अपने पर आक्षेप करने वाले आजीवक मतानुयायी आदि अन्यतीथियों के प्रति उत्तम साधु यही तटस्थ (रागद्वेष से रहित) चिन्तन करे कि ये बेचारे रा-द्वेष-कषाय-उपशान्ति या
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