Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
करते हैं, ऐसी स्थिति में मोक्ष का महापथिक साधु क्या सोचे, क्या करे? इसे शास्त्रकार उपदेश की भाषा में कहते हैं-हे साधक पुरुष ! मुक्तिगमन के योग्य भव्य पुरुष ! राग और द्वेप से परे होकर जरा ठण्डे दिल-दिमाग से उन पापकर्मों के परिणामों पर विचार करो। वास्तव में जब मनुष्य पापाल, मोह, राग और दुष, अपने-पराये के विचार को छोड़कर तटस्थ एवं निष्पक्ष होकर विचार करता है, तभी उसे तथ्य-सत्य के दर्शन होते हैं । इसीलिए इस सूत्र के प्रारम्भ में कहा है'तम्हा दवि क्ख पंडिए ।' पापकर्म के परिणामों और अपने जीवन के कार्यों पर पर्यालोचन करो, तभी तुम्हें असलियत का पता लगेगा।
प्रश्न होता है कि इस प्रकार के पर्यालोचन के बाद वह संयमी साधक क्या करे ? इसी के समाधानार्थ इस गाथा के दूसरे चरण में कहा है -- “यावाओ विरए अभिनिध्वु ।" पापकर्मों की इन सब प्रक्रियाओं तथा उनके परिणामों पर विचार करके शीघ्र ही साधक को पापकर्मो से विरत हो जाना चाहिए, आरम्भ-समारम्भ के या हिंसा आदि के जो भी स्थान या कार्य हों, उनसे अपना हाथ खींच लेना चाहिए और बोध, मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेप, अहंकार आदि से तथा इनके उत्पन्न करने वाले कार्यों से भी निवृत्त होकर शान्ति से आत्मा की उपासना, परमात्मा के स्मरण एवं आत्मस्वभाव में रमण करना चाहिए। इस प्रकार शान्त होकर वीतरागता की उपासना में लगने से क्या होगा ? इसके उत्तर में कहते हैं"पणया वीरे महाबीहि - धुवं ।” इस प्रकार कर्मविदारण में समर्थ वीर पुरुषों ने ही मोक्ष के इस महामार्ग को प्राप्त किया है। 'पणया' का अर्थ जैसे प्राप्त किया है' होता है, वैसे 'पणया' का अर्थ 'प्रणत—युके हुए' है । यानी एस वीर (धर्मवीर) पुरुष ही मोक्षमहामार्ग की ओर झके हुए हैं। 'महावीहिं' शब्द के यहाँ तीन विशेषण दिये हैं---'सिद्धिपहं णेयाउयं धुवं ।' यही सिद्धि का पथ है, यही न्याययुक्त है अथवा मोक्ष की ओर ले जाने वाला है, यही निश्चल है ।
आशय यह है कि शास्त्रकार ने यहाँ स्पष्ट बता दिया है कि 'परीषहों एवं उपसर्गों के समय इस प्रकार का कदम उठाना वीरों, धीरों तथा परीपह-उपसर्ग के सहने में मेरुसम स्थिर पुरुषों या कर्मरूपी सिंह को विदारण करने में समर्थों का है, सांसारिक सुखों की आशा करने वाले कायरों का नहीं है। इसलिए तुम भी परिवार का मोह छोड़कर परीषहों एवं उपसर्गों के सहने में धीर-वीर बनकर संयमपथ पर विचरण करो।"
पुनः उसी उपदेश को दोहराकर इस उद्देशक का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार कहते हैं
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