Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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संस्कृत छाया
एकश्चरेत् स्थानमासने, शयन एकः समाहितः स्यात् । भिक्षुरुपधानवीर्यः, वाग्गुप्तोऽध्यात्मसंवृतः
।।१२।।
अन्वयार्थ
( बइगुत्त ) वचन से गुप्त, (अज्झत्तसंवुडो ) मन से भी संवृत - गुप्त, ( उवहाणवीरिए) तपश्चर्या में शक्ति लगाने वाला साधु स्थान, आसन और शयन में एकाकी करता हुआ, धर्मध्यान से युक्त होकर अकेला विचरण करे ।
भावार्थ
वचन से गुप्त और मन से संवृत (रक्षित ), तपश्चर्या में पराक्रम प्रकट करने वाला भिक्षाजीवी साधु द्रव्य से अकेला ( सहायरहित ) और भाव से रागद्वेषरहित - एकमात्र आत्मा या आत्मभाव को साथ लेकर एकाकी विचरण करे । तथा कायोत्सर्गादि स्थान, समाधियुक्त आसन तथा विविक्त स्थान में शयन अकेला ही करे एवं धर्मध्यान से युक्त ( समाहित ) होकर रहे ।
सूत्रकृतांग सूत्र
व्याख्या
योग्य मुनि को एकाकी चर्या से लाभ
इस गाथा में साधुजीवन की मस्ती और सच्चे आनन्द से लाभ उठाने का सर्वोत्तम उपाय और उसके लिए योग्यता प्राप्त करने की प्रेरणा दी गयी है । पिछली गाथा में गृहस्थों के संसर्ग से एवं उनके द्वारा प्राप्त मान-सम्मान से उत्पन्न गर्व से दूर रहने का उपदेश दिया गया था । संसर्ग और गर्व इन दो साधनाविघ्नों
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साधु तभी मिटा सकता है, जब इन विघ्नों के कारणों से दूर रहे | साधना में इन विघ्नों का सबसे बड़ा कारण है समूह में रहना, समूह के साथ विचरण करना, सामूहिक रूप से आसन, शयन एवं स्थान का उपयोग करना । क्योंकि जब साधक समूह के साथ रहेगा तो उनकी नीति-रीति के अनुसार उसे चलना पड़ेगा, उसमें गृहस्थों का सम्पर्क भी अधिक होगा और साधु को वे सम्मान, प्रतिष्ठा तथा सत्कार भी देगे, उत्तम से उत्तम सुख-सुविधाएँ और साधन ( जो कि मुनि के लिए कल्पनीय होंगे ) देंगे । उस अवसर पर उक्त मुनि का मन संसर्गजनित दोषों एवं सत्कारसम्मानजनित गर्वादि अनिष्टों से दूर रहना अत्यन्त कठिन है । इसी दृष्टि से उक्त दोनों दोषों से दूर रहने हेतु इस गाथा में एकाकी विचरण, आसन, स्थान एवं शयन का निर्देश किया है 'एगे चरे ठाणपासणे सयणे एगे समाहिए।' अर्थात् भिक्षाशील साधु इन दोनों दोषों से बचने के लिए द्रव्य से एकाकी, दूसरे साधु-श्रावकों से
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