Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
करने (जोड़ने ) योग्य नहीं कहा है, (तह वि) तथापि ( बालजणो ) मूर्खजन ( पगब्भइ ) पाप करने में धृष्टता करता है । ( बाले) वह अज्ञजन ( पापहि ) पापीजनों में (मिज्जती ) माना जाता है, ( इति संखाय ) यह जानकर (मुणी ) तत्त्वचिन्तक मुनि (ण मज्जती) मद नहीं करता है ।
भावार्थ
प्राणियों का टूटा हुआ जीवन फिर जोड़ा नहीं (संस्कृत नहीं किया) जा सकता है, यह जीवनरहस्यज्ञ सर्वज्ञों ने कहा है । तथापि मूढ़जीव पाप करने में धृष्टता करता है । वह अज्ञपुरुष माना जाता है, यह समझकर तत्त्ववेत्ता मुनिवर मद नहीं करता है ।
व्याख्या
टूटता जीवन : गर्व किस पर ?
शास्त्रकार ने इस गाथा में मूर्ख लोगों की मूर्खता की मनोवृत्ति का चित्रण करते हुए कहा है कि प्राणियों का टूटा हुआ जीवन टूटे हुए डोरे की तरह फिर जोड़ा नहीं जा सकता है। जीवन की इतनी क्षणभंगुरता होते हुए भी मूढ़ मानव ढीठ होकर बेखटके पाप करता रहता है । वह पापकर्म करते हुए जरा भी लज्जित नहीं होता । अज्ञजीव उन कुकृत्यों से उत्पन्न पापों के गज से माप लिया जाता है कि वह पापी है | अथवा धान्य आदि के द्वारा जैसे कोठा भर दिया जाता है, वैसे ही पापों के द्वारा उसके जीवन का घड़ा भर दिया जाता है। वास्तविक स्वरूप का ज्ञाता मुनि किसी प्रकार का मद नहीं करता । यदि वह यह समझे कि मैं ही धर्मात्मा हूँ, अमुक मनुष्य तो पापी है, मैं ही उच्चक्रियापात्र हूँ, अन्य सव शिथिलाचारी हैं, मैं ही शास्त्रज्ञ हूँ, ये सब मूढ़ हैं - इस प्रकार का गर्व करना पाप है । अल्पतम असंस्कृत जिन्दगी में मानव किस बूते पर अभिमान कर सकता है ? इसलिए मुफ्त में मद के पाप का बोझ क्यों बढ़ाए ?
यह जानकर पदार्थों के
मूल पाठ
छंदेण पले इमा पया, बहुमाया मोहेण पाउडा
वियडेण पलिति माहणे, सीउन्हं वयसाऽहियासए ||२२||
संस्कृत छाया
छन्दसा प्रलीयन्ते इमाः प्रजाः, बहुमाया: मोहेन प्रावृताः ।
विकटेन प्रलीयते माहनः शीतोष्णं वचसाऽधिसहेत ||२२||
अन्वयार्थ
( बहुमाया ) अत्यन्त माया ( कपट) करने वाली ( मोहेन पाउडा ) मोह से
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