Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन - द्वितीय उद्दे शक
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जिन्होंने कषायों का त्याग कर दिया है, वे ही साधक संसार में सुसंयमी, विवेकी और धर्मरत कहलाए हैं, वे ही साधनाजगत् में चमके हैं ।
धुयं - यहाँ धुतशब्द संयम का वाचक है । अष्टविध कर्मों को जिससे दूर किया जाय वह संयम ही धुत है ।
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मूल पाठ अणि सहिए सुसंवुड धम्मट्ठी उवहाणवीरिए विहरेज्ज समाहिइंदिए अत्तहियं खु दुहेण लब्भइ ||३०|| संस्कृत छाया
अनीह : ( अस्निहः ) सहितः सुसंवृतः धर्मार्थी उपधानवीर्यः । विहरेत् समाहितेन्द्रियः आत्महितं दुःखेन लभ्यते
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अन्वयार्थ
( अणि) साधुपुरुष किसी वस्तु की स्पृहा या किसी वस्तु में स्नेह न करे । ( सहिए ) ज्ञान-दर्शन- चारित्रवृद्धि वाले हितावह कार्य करे, ( सुसंबुडे) इन्द्रिय और मन से गुप्त रहे । ( धम्मट्ठी) धमार्थी बने । ( उवहाणवीरिए) तप में पराक्रम प्रकट करे । ( समाहिदिए ) इन्द्रियों को समाधि में अपने अधीन रखे । ( अत्तहियं ) अपना आत्मकल्याण (दुहेण ख ) अवश्य दुःख से ( लब्भइ) प्राप्त किया जाता है । भावार्थ
साधु पुरुष किसी भी वस्तु की स्पृहा न करे, अथवा ममता न रखे । तथा वही कार्य करे, जिसमें अपना हित हो, इन्द्रियों तथा मन से गुप्त रह कर वह धर्मार्थी बने । तप में अपना पराक्रम प्रकट करता हुआ जितेन्द्रिय होकर संयम का अनुष्ठान करे, क्योंकि अपना कल्याण दुःख से प्राप्त होता है।
आत्मकल्याण के कुछ सूत्र
इस गाथा में साधुत्व की साधना द्वारा आत्मकल्याण के निम्नोक्त सूत्र शास्त्रकार ने दिये हैं
व्याख्या
(१) अस्निह:
(२) सहित : (३) सु-संवृतः
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(४) धर्मार्थी
(५) उपधानवीर्य (६) समाहितेन्द्रिय |
'अणिहे' शब्द प्राकृत का है, उसके
संस्कृत में अस्निहः, अनिहः, अनीहः, ये तीन रूप होते हैं | दो का अर्थ हम ऊपर दे चुके हैं। तीसरे का अर्थ इस प्रकार हैजो परीषह और उपसर्गों से पराजित नहीं किया जा सकता, उसे अनिह कहते हैं ।
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