Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
दशविध श्रमणधर्म अथवा श्रु त-चारित्ररूप धर्म बताया है उसको ही एकान्त हितकारी तथा उत्तम समझकर इसी प्रकार स्वीकार करो, जिस प्रकार कुशल द्यूतकार शेष (तीन) स्थानों को छोड़कर सर्वोत्तम कृत नामक चतुर्थ स्थान को स्वीकार करता है।
व्याख्या चतुर द्यूतकार की तरह सर्वोत्तम धर्म ग्रहण करो
इस गाथा में पूर्वगाथा में दिये गये उपमान के साथ उपमा (दृष्टान्त) को दाष्टान्तिक द्वारा घटाया गया है - जैसे चतुर जुआरी विजयप्राप्ति का साधन होने के कारण सर्वोत्तम स्थान चौक (कृत) को ही ग्रहण करके खेलता है, इसी तरह मनुष्यलोक में सर्वप्राणिरक्षक सर्वज्ञ द्वारा भाषित क्षमा आदि दशविध अथवा श्रुतचारित्ररूप सर्वोत्तम धर्म को ही एकान्त हित समझकर उसे स्वीकार करो।
निगमन के लिए पुनः उसी दृष्टान्त को बताते हैं—जैसे चतुर जुआरी जुआ खेलते समय एक आदि स्थानों को छोड़कर कृतयुग नामक चतुर्थ स्थान को ही ग्रहण करता है, वैसे ही जिनप्रवचनकुशल साधु भी गृहस्थ, कुप्रावचनिक और पार्श्वस्थ आदि के धर्मों को छोड़कर सर्वज्ञकथित सर्वोत्तम, सर्वमहान्, सर्वहितंकर धर्म को ही स्वीकार करे।
मल पाठ उत्तरा मणुयाण आहिया, गामधम्मा (म्म) इह मे अणुस्सुयं । जंसी विरता समुठ्यिा कासवस्स अणुधम्मचारिणो ॥२५॥
संस्कृत छाया उत्तराः मनुजानामाख्याताः ग्रामधर्मा इह मयाऽनुश्रुतम् । येभ्यो विरताः समुत्थिताः काश्यपस्यानुधर्मचारिणः ॥२५॥
अन्वयार्थ (मे) मैंने (अणुस्सुयं) परम्परा से यह सुना है कि (गामधम्मा) पाँचों इन्द्रियों के शब्द आदि विषय अथवा मैथुनसेवन (मणुयाण) मनुष्यों के लिए (उत्तरा) दुर्जेय (आहिया) कहे गये हैं। (जंसो) जिनसे (विरता) निवृत्त तथा (समुट्ठिया) संयम में स्थित पुरुष ही (कासवस्स) काश्यपगोत्री भगवान् ऋषभदेव अथवा भगवान महावीरस्वामी के (अशुधम्मचारिणो) धर्मानुयायी साधक हैं।
भावार्थ श्रीसुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामी आदि शिष्यवर्ग के प्रति कहते हैं कि शब्द आदि विषय अथवा मैथुनसेवन मनुष्यों के लिए दुर्जेय कहे हैं, ऐसा
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