Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
मूल पाठ जे एयं चरंति आहियं, नाएणं महया महेसिणा । ते उठ्ठिया ते समुट्ठिया, अन्नोन्नं सारंति धम्मओ ॥२६॥
संस्कृत छाया य एनं चरन्त्याख्यातं, ज्ञातेन महता महर्षिणा ते उत्थितास्ते समुत्थिता, अन्योऽन्यं सारयन्ति धर्मतः ॥२६॥
अन्वयार्थ (महया महेसिणा) महान् महर्षि (नाएणं) ज्ञातपुत्र के द्वारा (आहियं) कहे हुए (एयं) इस धर्म का (जे) जो भाग्यशाली नर-नारी (चरंति) आचरण करते हैं, (ते) वे ही (उठ्ठिया) उत्थित-उद्यत हैं, (ते) और वे ही (समुट्ठिया) सम्यक प्रकार से उस्थित -~समुद्यत हैं, तथा (धम्मओ) धर्म से डिगते हुए (अन्नोन्न) एकदूसरे को वे ही (सारंति) सँभालते हैं--पुनः धर्म में प्रवृत्त व स्थिर करते हैं ।
भावार्थ अनुकल-प्रतिकल परीषह सहन करने से महान महर्षि ज्ञातपुत्र के द्वारा प्ररपित इस अनुत्तरधर्म का जो साधक आचरण करते हैं, वे ही मोक्षमार्ग में उत्थित हैं, वे ही सम्यक् प्रकार से समुत्थित हैं तथा वे ही धर्म से विचलित या भ्रष्ट होते हुए एक-दूसरे को धर्म में स्थिर या प्रवृत्त करते हैं।
व्याख्या उत्थित-समुत्थित साधक कौन और कैसे ?
इस गाथा में मोक्षमार्ग के लिए उत्थित-समुत्थित साधक की पहचान दी गयी है। पूर्वगाथा में बताया गया था कि 'जो साधक ग्रामधर्म (काम) से विरतिरूप धर्म का आचरण करते हैं, वे ही अर्हत्-प्रतिपादित धर्म के अनुयायी हैं।' उसी गाथा के सन्दर्भ में यहाँ उत्थित-समुत्थित साधक की पहिचान बतायी गयी है कि जो साधक ग्रामधर्म विरतिरूप अर्हद्भाषित धर्म का आचरण करते हैं, वास्तव में वे ही मोक्षपथ के लिए उत्थित-समुत्थित हैं। जो स्वयं संयममार्ग में सावधान होकर उद्यत-समुद्यत हैं, वे ही धर्मपथ या संयमपथ से विचलित होते हुए एक-दूसरे को परस्पर धर्म में प्रेरित कर सकते हैं और करते हैं। उत्थित-समुत्थित' शब्द का विशेष स्पष्टीकरण शीलांकाचार्य कृत वृत्ति में इस प्रकार है-जो ज्ञातपुत्र तीर्थंकर भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित ग्रामधर्मत्यागरूप धर्म का आचरण करते हैं वे ही उत्थित हैं--अर्थात् संयम में तथा कुतीथिक धर्म का त्यागकर सम्यक्धर्म में प्रवृत्त हैं, तथा वे ही समुत्थित हैं --अर्थात् निह्नव आदि को छोड़कर कुमार्ग-उपदेश से
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