Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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बैतालीय : द्वितीय अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
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___ अन्वयार्थ (सुन्नागारगओ) शून्यगृह में स्थित (पहुँचा हुआ), (महामुणी) महामुनि तिरिया) तिर्यञ्च सम्बन्धी, (मणुया) मनुष्य-सम्बन्धी, (दिव्वगा य) और देवकृत (तिविहा उवसग्गा) इन तीनों प्रकार के उपसर्गों को (अहियासिया) सहन करे । (लोमादीयं ण हारिसे) भय से रोमांच (लोमहर्षण) आदि भी न करे ।
भावार्थ किसी शून्यगृह में कायोत्सर्ग, स्वाध्याय आदि करने के लिए पहुँचा हुआ धीर महामुनि,' वहाँ तिर्यंचकृत, मनुष्यकृत या देवकृत कोई भी प्रतिकल या अनुकल उपसर्ग आएँ उन्हें समभाव से सहन करे, यहाँ तक कि उन उपसर्गों के समय शरीर के रोम आदि में भी कम्पन न होने दे।
व्याख्या
शून्यागारस्थ मुनि त्रिविध उपसर्ग सहन करे एकान्त एकाकी शयन, आसन, स्थान आदि की दृष्टि से स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि के निमित्त यदि साध किसी सूने घर में पहुँच जाता है, वहाँ रात्रि में उस पर किसी तियं च (शेर, चीते, भालू, भेड़िये आदि, या सर्पादि) का उपसर्ग (उपद्रव) हो, किसी खूख्वार, चोर, भील, लुटेरे, व्यभिचारी आदि मनुष्य का अनुकूल-प्रतिकल उपसर्ग हो, अथवा कोई व्यन्तर आदि देव-देवी उपसर्ग करे तो महामुनि को क्या करना चाहिए ? क्या उन प्राणियों पर रोष, द्वेष, प्रहार, उच्चाटन आदि क्रिया करनी चाहिए या जोर-जोर से चिल्लाकर या लोगों को आवाज देकर उनसे सहायता के लिए कहना चाहिए? शास्त्रकार कहते हैं'तिरिया'... '"अहियासिया, लोमादीयं ण हारिसे ।' आशय यह है-उपसर्ग चाहे तिर्यञ्च, मनुष्य या देव द्वारा कृत हो, उन पर किसी प्रकार का रोष, द्वष, प्रहार, उच्चाटनादि किये बिना समभावपूर्वक सहना चाहिए। दूसरों को सहायता के लिए बुलाना तो दूर रहा, शरीर के किसी रोम में भी भय का संचार नहीं होना चाहिए, न कोई अंगविकार होना चाहिए।
मूल पाठ णो अभिकखेज्ज जीवियं नोऽवि य पूयणपत्थए सिया ।
अब्भत्थमुवति भेरवा सुन्नागारगयस्स भिक्खुणो ॥१६॥ १. 'महामुणी' से यहाँ जिनकल्पिक मुनि अर्थ सूचित होता है जो वज्रऋषभ
नाराच संहनन से युक्त होते हैं।
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