Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन - द्वितीय उद्देशक
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स्थित असंयम से लज्जित होने वाले मुनि को राजा आदि के साथ संसर्ग करना बुरा है, क्योंकि यह शास्त्रोक्त आचार पालन करने वाले मुनि के लिए समाधि का कारण है ।
व्याख्या
राजादि से संसर्ग : असमाधिकारक
इस गाथा में आचारवान साधु के लिए राजा आदि सत्ताधारियों के साथ संसर्ग असमाधि का कारण बताया है । वह इसलिए कि राजा आदि सत्ताधीशों के सम्पर्क में अधिक आने से दोनों प्रकार से साधु के संयमी जीवन का नाश है । राजा आदि अगर तुष्ट (प्रसन्न) हों तो साधु के लिए आरम्भ समारम्भ आदि करते हैं, और अगर वे रुष्ट हो जायँ तो साधु को अपने राज्य से निष्कासित कर देते हैं, उसके वस्त्रपात्रादि संयमपालन में सहायक उपकरण छीन लेते हैं, यहाँ तक कि प्राणहरण तक कर लेते हैं । इसी दृष्टि से शास्त्रकार राजा आदि सत्ताधीशों से संसर्ग को असमाधि का कारण बताते हैं- 'संसग्गि असपाही उ तहागयस्स वि।' इस गाथा के प्रारम्भ में साधु के जो तीन विशेषण दिये हैं, वे साध्वाचारपालन की दृष्टि हैं। पहला विशेषण है- 'उष्णोदकतप्तभोजी' अर्थात् गर्म किये हुए (तीन उबाल आए हुए ) पानी को बिना टण्डा किये हुए गर्म का गर्म ही पीने वाला । दूसरा विशेषण है - 'धम्मट्ठियस्स' श्रुत चारित्र धर्म में स्थित और तीसरा विशेषण है। 'ही मतो' - असंयम कार्य करने से लज्जित होने वाला । ये तीनों विशेषण साधुजीवन के आचार के सूचक हैं। जो साधु इतना आचारवान है, वह राजा आदि से संसर्ग करके अपने आचार से भ्रष्ट क्यों होना चाहेगा ? असंयम और असमाधिदोष में जानबूझकर क्यों पड़ेगा ?
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मूल पाठ
अहिगरणकस्स भिक्खुणो वयमाणस्स पसज्झ दारुणं । अट्ठे परिहायती बहु अहिगरणं न करेज्ज पंडिए संस्कृत छाया
॥ १६ ॥
अधिकरणकरस्य भिक्षोः वदतः प्रसह्य दारुणम् 1 अर्थः परिहीयते बहु अधिकरणं न कुर्यात् पण्डितः ॥१६॥ अन्वयार्थ
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( अहिगरण कडस्स भिक्खुणो ) जो साधु कलह करता है ( पसज्झ ) और जोरशोरसे या बुरी तरह से ( दारुणं) भयंकर कठोर वाक्य ( वयमाणस्स ) बोलता है,
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