Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन--द्वितीय उद्देशक
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'महवं परिगोवं जाणिया ।' वृत्तिकार ने परिगोव शब्द का अर्थ 'पंक' किया है। पंक दो प्रकार का होता है द्रव्यपंक और भावपंक । द्रव्यपंक लग जाने पर तो उसे पानी आदि से धोया भी जा सकता है, परन्तु भावपंक – सांसारिक प्राणियों के साथ अतिसंसर्ग, परिचय या आसक्ति के लग जाने पर उसे तप, संयम आदि जल से धोने पर ही उसका रंग छूट सकता है । अतिसंसर्ग मुनि के ज्ञान-ध्यान, स्वाध्याय एवं भजन में भंग डालने वाला है। एक बार जिस साधक को अतिसंसर्ग का चस्का लग जाता है, फिर वह उस कीचड़ में फँस ही जाता है। और गृहस्थ लोग उसको अनेक प्रकार से प्रलुब्ध करके उसका पतन कर देते हैं अथवा वह स्वयं युवतियों के मोहक जाल में फंसकर अपनी पतन कर लेता है। इसीलिए दीर्घदशी महापुरुषों ने कहा-'विउमंता पयहिज्ज संथवं' विद्वान् साधु को दीर्घदृष्टि से गृहस्थसंसर्ग से होने वाली हानियों पर विचार कर उसका परित्याग कर देना चाहिए।
साधना में दूसरा विघ्न है—गर्व । जब किसी साधक की प्रशंसा होने लगती है, वाहवाही के कहकहे उसके मन को गुदगुदाने लगते हैं, राजा, मंत्री आदि बड़े-बड़े लोग उसे वन्दना करते हैं, वस्त्र-पात्र, आहार आदि से उसका सत्कार करते हैं, लोगों में उसकी प्रतिष्ठा होने लगती है, तो वह गर्व से फूल जाता है। अपने आपको वह बहुत महान् समझने लगता है। यह साधना के मार्ग में बहुत बड़ा विघ्न है। उसकी साधना, ज्ञान की वृद्धि वहीं रुक जाती है। फिर वह हर प्रसंग पर सत्कारसम्मान पाने को लालायित रहता है। इसलिए शास्त्रकार कहते हैं--'सुहमे सल्ले दुरुद्धरे ।' वन्दनादि से होने वाला गर्व इतना सूक्ष्म शल्य या तीक्ष्ण काँटा है, कि चुभ जाने पर निकलना कठिन है ।' यही इस गाथा का आशय है ।
मूल पाठ एगे चरे ठाणमासणे सयणे एगे समाहिए सिया ।
भिक्खू उवहाणवीरिए, वइगुत्ते अज्झत्तसंवुडो ॥१२।। १ इस गाथा के बदले नागार्जुनीय वाचना के अनुसार यहाँ निम्न गाथा मिलती है --
पलिमंथं महं वियाणिया, जाऽविय वंदण-पूयणा इह ।
सुहुम सल्लं दुरुद्धरं, तं पि जिणे एएण पंडिए ।
अर्थात् ----स्वाध्याय, ध्यान में तत्पर, एकान्त निःस्पृह विवेकी पुरुष दूसरे लोगों द्वारा किये जाते हुए वन्दन-पूजन आदि सरकार को सदनुष्ठान एवं सद्गति में महान् विघ्न जानकर उसे छोड़ दे। जब वन्दनादि भी विघ्नरूप है तो शब्दादि विषयासक्ति का तो कहना ही क्या ? अतः बुद्धिमान् पुरुष आगे कहे जाने वाले उपाय से उस दुरुद्धर सूक्ष्म शल्य को निकाल दे ।
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