Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
इस प्रकार का आकुट्टी नहीं है, वह अनाकुट्टी कहलाता है । आशय यह है कि जो कोधादि कारणवश केवल मन के व्यापार से प्राणी की हिंसा करता है, परन्तु शरीर
रोष- षादिवश प्राणियों के अंगों का छेदन - भेदन - रूप व्यापार नहीं करता । ऐसे व्यक्ति को सावद्य पापकर्म का उपचय --बन्ध नहीं होता । दूसरे, एक व्यक्ति अनजाने ही, अकस्मात् केवल शरीर के व्यापार से ही प्राणिहिंसा की क्रिया कर बैठता है । उससे यह हिंसा - क्रिया अज्ञात अवस्था में बिना जाने-बुझे ही हो जाती है । उसके मन ACT कोई व्यापार नहीं होता । अतः ऐसे व्यक्ति को भी सावध - कर्मबन्ध ( कर्मोपचय ) नहीं होता ।
नियुक्तिकार ने पहले यह बताया था - 'चतुविध कर्म उपचय (बन्ध) को प्राप्त नहीं होता, यह भिक्षुओं ( बौद्ध दार्शनिकों) का कथन है । इन चारों में से शास्त्रकार परिज्ञोपचित और अविज्ञोपचित इन दोनों प्रकारों का तो मूलपाठ में उल्लेख कर दिया है । शेष ईर्ष्यापथिक और स्वप्नान्तिक ये दो प्रकार नहीं बताये, किन्तु मूलपाठ में 'च' शब्द है, उससे उन दोनों का अध्याहार ( ग्रहण) हो जाता है । ईर्ष्या कहते हैंगमन को । तत्सम्बन्धी मार्ग को ईर्थ्यापथ कहते हैं । उस ईर्थ्यापथ के कारण जो कर्म होता है, उसे ईर्ष्यापथिक कहते हैं । आशय यह है कि मार्ग में चलते समय जो बिना जाने, उपयोग के बिना मनोव्यापार के अभाव में प्राणियों का घात हो जाता है, उससे कर्म का उपचय नहीं होता । इसी प्रकार स्वप्नान्तिक कर्म भी बन्धन का कारण नहीं होता, जैसे स्वप्न में किये हुए भोजन से किसी की तृप्ति नहीं होती उसी तरह स्वप्न में किये हुए जीव-घात से भी कर्मबन्ध नहीं होता । 'स्वप्ना - न्तक कर्म जिसमें विद्यमान हों, उसे 'स्वप्नान्तिक' कहते हैं । स्वप्न में व्यापार का सर्वथा अभाव होता है, इसलिए स्वप्न में किया हुआ किसी छेदन - भेदन आदि कर्मबन्धन का कारण नहीं होता ।
काया के
प्राणी का
प्रश्न होता है कि यदि इन चारों प्रकारों से कर्मबन्धन नहीं होता तो बौद्धों के मतानुसार किस प्रकार से कर्मबन्धन होता है ? इसका उत्तर वे यों देते हैं कि प्रथम तो हनन किया जाने वाला प्राणी सामने हो, फिर हनन करने वाले को यह ज्ञान (भात) हो कि यह प्राणी है । उसके पश्चात् हनन करने वाले की ऐसी बुद्धि ( वृत्ति ) हो कि 'मैं इसे मारू या मारता हूँ ।' इन सबके रहते हुए यदि शरीर से वह उस प्राणी को मारने की चेष्टा करता है और उस चेष्टा के अनुसार यदि वह प्राणी मार दिया जाता है या उस प्राणी के प्राणों का वियोग कर दिया जाता है, तब हिंसा होती है, और तभी कर्म का भी उपचय होता है ।
यहाँ पाँच कारण हिंसा के बताये गये हैं । इनमें से किसी एक के भी न होने पर न हिंसा होती है, न कर्म का उपचय होता है; जैसा कि वे कहते हैं—
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