Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन - तृतीय उद्देशक
अन्वयार्थ
( इह ) इस मनुष्यभव में जो जीव (संबुडे ) संयम-नियमादि में रत (मुणी जाए) मुनि हो जाता है, (पच्छा अपावए होइ) वह पीछे पापरहित हो जाता है । (जहा) जैसे (नर) रज - मिट्टी से रहित निर्मल (विडंबु ) जल ( भुज्जो) फिर ( सत्यं ) रज-: मिट्टी से युक्त गँदला - मैला हो जाता है, ( तहा ) वैसे ही वह निर्मल आत्मा पुनः मलिन हो जाता है ?
भावार्थ
जो जीव इस मनुष्यजन्म में संयम-नियमादि में तत्पर रहता हुआ मुनि बन जाता है, वह बाद में निष्पाप हो जाता है, किन्तु जैसे वह निर्मल जल पुनः मलिन हो जाता है वैसे ही वह निर्मल निष्पाप आत्मा भी पुन: मलिन हो जाता है ।
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व्याख्या
मुनि की निर्मल निष्पाप आत्मा पुनः मलिन
पूर्वोक्त गाथा में वर्णित पुनरागमनवाद का सिद्धान्त इस गाथा में पुन: स्पष्ट करते हैं---' इह संबुडे मुणी आशय यह है कि जैसे मटमैले पानी को फिटकरी आदि से स्वच्छ करके निर्मल बना लिया जाता है, वह शुद्ध पानी आँधी, अन्धड़ आदि के द्वारा उड़ाई हुई रेत के संयोग से फिर मैला हो जाता है । वैसे ही कोई जीव मनुष्यजन्म को पाकर अपनी राग-द्वेष कषाय आदि से या कर्मों से मलिन बनी हुई अपनी आत्मा को मुनिदीक्षा धारण करके शुद्ध चारित्र आराधना में अहर्निश रत रहकर निष्पाप, निर्मल एवं विशुद्ध बना लेता है, और बाद में एक दिन समस्त कर्मों से रहित हो जाता है, शुद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है, इसके पश्चात् वह विशुद्ध आत्मा अपने तीर्थ (संघ) की बढ़ी हुई प्रतिष्ठा या उन्नति को देखकर रागवश अत्यन्त प्रसन्न होता है, और संघ की बदनामी या अप्रतिष्ठा अथवा अवनति देखकर रोपद्वेष से भड़क उठता है । इस प्रकार राग-द्वेष के उदय से वह विशुद्धात्मा पुनः कर्मरज से, मलिन हो जाता है । इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं--' इह संवडे मुणी जाए' । निष्कर्ष यह है कि अनन्तकाल के पश्चात् शुद्धाचारसम्पन्न बनकर मोक्षप्राप्त आत्मा कर्म - रहित हो जाता है, वही राग-द्वेष के कारण पुनः कर्मयुक्त एवं मलिन हो जाता है ।
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यह है त्रैराशिक मतवाद पुनरागमनबाद या अवतारवाद, जिसको लेकर (अन्यतीर्थी) मुक्त होकर फिर दूसरे को मुक्ति दिलाने के लिए शूरवीर बनते हैं, स्वयं राग-द्व ेषयुक्त संसार में पड़कर । कितनी अटपटी मान्यता है यह ?
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