Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन --- प्रथम उद्देशक
२६५
मोह-ममता और आसक्ति परस्पर वृद्धिंगत होती जाती है। ऐसी स्थिति में मनुष्य जितना कामभोगों के सेवन में सुख मानता है, उतना ही उन परिचितजनों में मोहित होकर उनके लिए अनेक प्रकार के पापकर्मों का उपार्जन करने में सुख मानता है । और अपने पूर्व शुभकर्मों के उदय से कामभोगों का सेवन करके तृप्ति की आकांक्षा करते हैं, लेकिन वह तृप्ति क्षणिक होती है, बल्कि वे अतृप्त ही रह जाते हैं । जैसे प्यासा मानव मृगतृष्णा की ओर दौड़कर पहुँचने पर भी अपनी पिपासा शान्त नहीं कर सकता, दिवस के अवसान के समय पूर्व दिशा की ओर अपनी छाया को पकड़ने के लिए दौड़ने वाले की छाया हाथ नहीं आती, वैसे ही कामभोगों के सेवन से काम की शान्ति नहीं होती । प्रत्युत जैसे अग्नि में घी की आहुति डालने से अग्नि शान्त होने की बजाय अधिक भड़कती है, वैसे ही कामभोगों की वासना अधिकाधिक भड़कती है । कामभोगों के आसक्तिपूर्वक सेवन से कितने कर्मबन्ध होते हैं, इसी प्रकार परिचित परिजनों के प्रति गाढ़ासक्ति से कितने कर्मबन्ध होते हैं, उन अशुभ कर्मों के फलोदय के समय कितनी वेदना होगी ? इसे वह आसक्त मनुष्य सोचता ही नहीं है, परन्तु जब आयु क्षय हो जाती है और तालवृक्ष के फल के टूटकर गिरने की तरह मनुष्य निढाल होकर भूमि पर गिर जाता है उस समय न तो ये कामभोग बचा सकते हैं और न ही परिचित परिजन उसकी रक्षा कर सकते हैं । यही इस गाथा का आशय है ।
अब अगली गाथा में कर्मों से पीड़ित दाम्भिक लोगों की दशा के विषय में शास्त्रकार कहते हैं
मूल पाठ
जे यावि बहुस्सए सिया धम्मियमाहणभिक्खुए सिया । अभिमकडेह मुच्छिए तिव्वं ते कम्मेहि किच्चती ||७||
संस्कृत छाया
ये चापि बहुश्रुताः स्युः, धार्मिक ब्राह्मणभिक्षुकाः स्युः । अभिच्छादककृतैमूच्छितास्तीव्रं ते कर्मभिः कृत्यते ||७||
अन्वयार्थ
(जे यावि) जो कोई भी ( बहुस्सुए ) बहुश्र ुत - अनेक शास्त्रों को सुने हुए, शास्त्रपारंगत ( सिया) हों, तथा ( धम्मियमाहणभिक्खुए) धार्मिक, ब्राह्मण-माहन एवं भिक्षुक - भिक्षाजीवी (सिया ) हों, ( अभिणूमकडेहि ) किन्तु यदि वे मायाकृत---
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