Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन--प्रथम उद्देशक
२६१
मल पाठ जमिणं जगती पुढो जगा, कम्मेहि लुप्पंति पाणिणो । सयमेव क.हिं गाहंति, णो तस्स मुच्चेज्जऽपुठ्ठयं ॥४॥
संस्कृत छाया यदिदं जगति पृथज्जगाः, कर्मभिलृप्यन्ते प्राणिनः । स्वयमेव कृतैर्गाहन्ते, नो तस्य मुच्येदस्पृष्टः ॥४॥
अन्वयार्थ जमिणं) चूंकि अनिवृत्त पुरुषों की यह दशा होती है – (जगती) इस संसार में (पाणिणो) जीव (पुढो जगा) अलग-अलग अपने-अपने (कम्मेहि) कृतकों से (लुप्पंति) दुःख पाते हैं। तथा (सय मेव कडेहि) अपने किये हुए कर्मों के कारण ही (गाहंति) नरक आदि यातनास्थानों में जाते हैं। (तस्स अपुठ्ठयं) अपने कर्मों का फल-स्पर्श (परिणाम-भोग) किये बिना (नो मुच्चेज्ज) वे मुक्त नहीं हो सकते... छुटकारा नहीं पा सकते।
भावार्थ जो जीव मोहान्ध होकर सावध कर्मानुष्ठान नहीं छोड़ते, उनकी यह दशा होती है कि संसार में अलग-अलग रहे हुए प्राणी अपने-अपने किये हुए कर्मों के कारण स्वयमेव दुःख पाते हैं और अपने किये हुए कर्मों के फलस्वरूप नरक-तिर्यञ्च आदि यातनास्थानों (दुर्गतियों) में जाते हैं। तथा अपने कर्मों का फल स्वयं भोगे बिना वे उनसे मुक्त नहीं हो सकते।
व्याख्या
अपने-अपने कर्म : अपने-अपने फल जो मनुष्य मोहान्ध होकर स्वजनों को प्रसन्न करने के लिए अंधाधुन्ध पापकर्म करता रहता है, यह सोचकर कि 'मैं अपने स्वजनों के लिए, उनकी प्रेरणा से ये पापकर्म कर रहा हूँ, इनका फल मुझे नहीं, उनको भोगना पड़ेगा,' वह अत्यन्त भ्रम में है । संसार में कर्मों का न्याय यह है कि जो कर्म करता है, (चाहे वह अपने लिए करे या दूसरों के लिए) उसका फल उसको खुद को ही भोगना पड़ता है। पिता करेगा तो पिता को, पुत्र करेगा तो पुत्र को। एक के बदले दूसरा न तो कर्मफल भोग सकता है और न ही दूसरे को सुगति में पहुँचा सकता है। यहाँ तो 'अपनी करनी,
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