Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
पार उतरनी' है। इसी सिद्धान्त को शास्त्रकार प्रकट करते हैं-"जमिणं .......... पाणिणो।"
___ आशय यह है कि जो पापकर्मों से निवृत्त नहीं होते, वे अपने-अपने किये हुए कर्मों के फल पृथक्-पृथक् पाकर दुःखी होते हैं। वे स्वयंकृत कर्मों के कारण ही नरक, तिर्यंच आदि दुर्गतियों में अवगाहन (प्रवेश) करते हैं; ईश्वर आदि किसी अन्य के कारण से नहीं । इस कर्मसिद्धान्त के द्वारा शास्त्रकार ने अपने कर्मों के साथ अपने दु:खों का कार्य-कारणभाव बताया है । आचार्य अमित गति ने भी कहा है
स्वयंकृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्त यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयंकृतं कर्म निरर्थकं तदा ।।
-जो कर्म आत्मा ने स्वयं किये हैं, उनका शुभाशुभ फल वह स्वयं पाता है । जीव यदि दूसरे के द्वारा दिया हुआ फल पाता है, तो स्पष्ट है कि उसके स्वयंकृत कर्म निरर्थक हो जाएंगे ।' अत: स्वयंकृत कर्मों का फल स्वयं भोगना अवश्यम्भावी है। कृत कर्मों से मुक्ति पाने के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की उत्कृष्ट आराधना एवं समभाव की साधना करना आवश्यक है।
मनुष्य भ्रान्तिवश यह सोचा करता है कि जिस प्राणी को जो गति, योनि या स्थान मिल गया है, वह वहीं रहेगा, मरकर भी पुनः-पुनः वहीं जन्म लेगा, परन्तु यह सिद्धान्त असत्य है, भ्रान्त है। इसे ही बताने के लिए अगली गाथा में कहते हैं
मूल पाठ देवा गंधव्वरक्खसा, असुरा भूमिचरा सरीसिवा । राया नरसेठिमाहणा, ठाणा ते वि चयंति दुक्खिया ॥५॥
संस्कृत छाया देवा: गन्धर्वराक्षसा, असूराः भूमिचराः सरीसृपाः राजानो नरश्रेष्ठिब्राह्मणाः स्थानानि तेऽपि त्यजन्ति दुःखिताः ।।५।।
___ अन्वयार्थ (देवा) देवता, (गंधवरक्खसा) गन्धर्व, राक्षस, (असुरा) असुर, (भूमिचरा) भूमि पर चलने वाले, (सरीसिवा) सरककर चलने वाले तिर्यंच, (राया) राजा, १. जैनागमों में कहा है-'कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि ।'
अन्य धर्मों के ग्रन्थों में भी कहा है-'नामुक्त क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।'
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