Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन---तृतीय उद्देशक
२४१
गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व । इसी बात को शास्त्रकार बताते हैं ....-'अहो इव वसवत्ती सव्व कामसमप्पिए' आशय यह है कि मोक्ष से पूर्व इसी जन्म या लोक में जो पुरुष अपने वश में रहता है या जो इन्द्रियों के वश में नहीं है, जो सांसारिक स्वभाव से अभिभूत नहीं होता है, वह सर्वकामनाओं की सिद्धि से सम्पन्न हो जाता है, अर्थात् सभी कामनाएँ उसके चरणों में समर्पित हो जाती हैं।
___ इस प्रकार अन्यदर्शनी लोग अष्टसिद्धियों जैसी भौतिक विभूतियों का प्रलोभन देकर लोगों को अपने मत की ओर आकृष्ट करते हैं। वास्तव में वे स्वयं ऐसी भौतिक सिद्धियों के चक्कर में उलझकर आडम्बरप्रिय बन जाते हैं। इससे मुक्ति तो दूरातिदूर हो जाती है, केवल संसार के जन्ममरण के चक्र में ही वे पड़े रहते हैं। अपनी इसी प्रकार की सिद्धि के बल पर वे दूसरों को कैसे अपने वारजाल में फंसाते हैं, इस बात को शास्त्रकार अगली गाथा में बताते हैं ----
मूल पाठ सिद्धा य ते अरोगा य, इहमेगेसिमाहियं । सिद्धिमेव पुरोकाउं, सासए गढिया नरा ॥१५।।
संस्कृत छाया सिद्धाश्च तेऽरोगाश्च, इकषामाख्यातम् । सिद्धिमेव पुरस्कृत्य, स्वाऽऽशये ग्रथिताः नरा: ।।१५।।
अन्वयार्थ (इह) इस संसार में (एगेसि ) कुछ मतवादियों का (आहियं) काथन है कि (सिद्धा) जो हमारे मतानुसार अनुष्ठान से सिद्ध हुए हैं, रससिद्ध बन गये हैं, या अष्टसिद्धिप्राप्त हो चुके हैं, (ते) वे (अरोगा य, नीरोग---स्वस्थ हो जाते हैं । परन्तु (नरा) इस प्रकार कहने वाले वे लोग (सिद्धि मेव) स्वमत से प्राप्त ऐसी सिद्धि को ही (पुरोकाउं) आगे रख कर (सासए) अपने-अपने आशय (मत ----अभिप्राय या दर्शन) में (गढिया) ग्रस्त-आसक्त हैं ।
भावार्थ इस लोक में कई मतवादियों (रससिद्धिवादियों या अष्टसिद्धिवादियों) का कथन है कि हमारे मतोक्त अनुष्ठान से जिन्होंने सिद्धि (रसायनसिद्धि या अष्टसिद्धि प्राप्त कर ली है, वे सिद्ध और नीरोग (शरीर और मन से
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