Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन-- चतुर्थ उद्देशक
२६१
'अगिद्ध विपक्को य' अर्थात् लाये हुए आहार अथवा गृहस्थ के यहाँ अथवा दुकानों में रखे हुए स्वादिष्ट आहार (स्वादिष्ट और सरत भोज्य पदार्थ) को देखकर अथवा सेवन करते हुए आसक्तिभाव या रसलोलुपता एवं रागद्वेष (मोह एवं घृणा) से रहित हो, यह कहकर यहाँ परिभोगंणा के ५ दोषों का परिहार करना भी साधु के लिए आवश्यक बताया है । इसी परिभोषणा के अन्तर्गत शास्त्रकार ने एक बात और सूचित कर दी -- 'ओमाणं परिवज्जए । भिक्षा के समय साधु किसी गृहस्थ के यहाँ जाए और वह गृहस्थ उसका अपमान कर दे, झिड़क दे या गाली दे दे, तो भी साधु समभावपूर्वक उसे दरगुजर कर दे । अथवा गृहस्थ कोई सरस चीज न दे या बहुत ही कम दे या रूखा-सूखा आहार अरुचि से दे तो उस पर झुंझलाकर बिगड़े नहीं, उस दाता का अपमान न करें। अपने तप और ज्ञान का अभिमान न करे |
से आहारादि दें, उसे ले लेना दायकदोष है । ( ७ ) उम्मीसे- असूझती वस्तु से मिली हुई सूझती वस्तु लेना उन्मिश्र दोप है । (८) अपरिणय - पूरे पके बिना वस्तु को ले लेना अरिणतदोष है । (३) वित्त तुरन्त लिपी हुई जमीन को लांघकर आहारादि दे, उसे ले लेना, लिप्तदोष है । (१०) छड्डिय - आहार देने वाले दाता के हाथ से आहार की छींटे पड़े, उस आहार को ले लेना छर्दितदोप है।
१. आहार करते समय साधु-साध्वियों के लिए जो दोष वर्जनीय हैं, उन्हें परिभोगपणा दोप कहते हैं, वे ५ हैं- ( १ ) इंगाल - सरस स्वादिष्ट आहार की प्रशंसा करना । (२) धूम - बुरे, रूखे-सूखे आहार की सिर धुनते हुए निन्दा करना । (३) पणे - प्रमाण ( मात्रा - मर्यादा) से अधिक आहार करना । जैसे -- पुरुष के लिए ३२ कौर, स्त्री के लिए २८ कौर एवं नपुंसक के लिए २४ कौर से अधिक भोजन करना प्रमाणदोष है । (४) संजोग - स्वाद के लिए एक वस्तु में दूसरी वस्तु मिलाना, संयोजनादोष है । (५) कारण - वेदना ( सू की पीड़ा), वैयावृत्य (सेवा), ईयपिथ, संयमनिर्वाहार्थ, धर्मचिन्तार्थ और प्राणरक्षार्थ साधु के आहार करने के ६ कारण हैं । इन ६ कारणों के बिना थे आहार करना कारणदोष है ।
इस गाथा में शास्त्रकार ने आहार (भिक्षाचरी) के ४२ दोषों को वर्जित करने का उपदेश दिया है ।
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