Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन-....
२६३
मान्यताएँ भरी पड़ी हैं। इसलिए शास्त्रकार अपनी ओर से इस चर्चा को प्रस्तुत करके विज्ञपुरुषों का समाधान नीचे की पंक्ति से करते हैं।
वे कहते हैं----लोपवाय णिसज्जिा , इहमेगेसिमाहियं । अर्थात् कुछ लोगों का हमसे अनुरोध है कि आप इ। प्रसिद्ध लोकवाद को भी सुन लें। लेकिन शास्त्रकार पाहते हैं कि हमने लोकवाद को सुन और देख रखा है। यह लोकवाद तो यथार्थ वस्तुस्वरूप न बताकर बिवरीत वस्तुस्वरूप बताने वाले अविवेकी मतवादियों का-सा वे-सिर-पैर का विधान है। अत: लोकवाद उन्हीं अविवेकियों का पिछलग्गू है। निष्कर्ष यह है कि जिस विचारधारा का कोई सिरा नहीं है, उस लोकवाद जैसी विचारधारा को जानना-सुनना ही बेकार है। इसीलिए शास्त्रकार लोकवाद के श्रवण-मनन के प्रति उपेक्षा के विषय में कहते हैं - विदरीयपन्नसंभूयं । यह लोकवाद परमार्थ से, यथार्थ वस्तुस्वरूप से विपरीतबुद्धि के द्वारा रचित है।
अगली गाथा में शास्त्रकार लोकवाद को विपरीतबुद्धि से रचित होना प्रमाणित करते हैं-----
मूल पाठ अणते निइए लोए, सासए ण विणस्सइ। अंतवं णिइए लोए, इति धीरोऽतिपासय ॥६॥
संस्कृत छाया अनन्तो नित्यो लोकः, शाश्वतो न विनश्यति । अन्तवान्नित्यो लोक इति धीरोऽतिपश्यति ॥६।।
अन्वयार्थ (लोए) यह लोक (पृथ्वी आदि लोक), (अणते) अनन्त अर्थात् सीमारहित -असीम, (निइए) नित्य और (सासए) शाश्वत है। (ण विण सइ) यह नष्ट नहीं होता है । यह किसी का कथन है । तथा (लोए) यह लोक (अंतवं) अन्तवान् ----ससीम, (णिइए) और नित्य है, (इति) ऐसा (धीरो) व्यास आदि धीरपुरुष (अतिपासइ) विशेष देखते हैं अर्थात् कहते हैं ।
भावार्थ यह लोक अनन्त (असीम), नित्य और शाश्वत है, इसका कभी विनाश नहीं होता है। ऐसा कुछ मतवादी कहते हैं । तथा यह लोक अन्तवान्
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