Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन--प्रथम उद्देशक
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चुकी हैं, वे वापस लौट कर नहीं आतीं। यह तो प्रकृति का स्वाभविक नियम है। रात्रि शब्द से यहाँ उपलक्षण से दिन, पहर, घण्टा, घड़ी आदि समय के सभी विभाग समझ लेने चाहिए। इसका रहस्य यही है कि मनुष्य को यही सोचकर चलना चाहिए कि मैं अभी जो कुछ धर्माचरण कर लूगा, वही क्षण मेरा है। इस प्रकार रात और दिन तो अपनी गति से चले जा रहे हैं। मनुष्य को चाहिए कि उत्तम जीवन सम्बन्धी सामग्री प्राप्त करके वह इसे प्रमाद, कषाय, विषय-सेवन आदि तुच्छ बातों में न खोए। वह जितना भी हो सके सद्धर्म का बोध प्राप्त करके आत्मस्वरूप का उत्तम ज्ञान पाकर अपने जीवन को आत्म-साधना या धर्माराधना में लगाए।
'मनुष्य जन्म तो बहुत सस्ता है, यह जिंदगी तो फिर मिल जाएगी', ऐसा सोचना भी मूर्खता है। क्योंकि यह मालूम नहीं है कि यह मरकर किस गति या योनि में जाएगा ? इसलिए एक बार बाजी हाथ में से चली गई तो फिर हाथ आनी कठिन है । यही बात शास्त्रकार कहते हैं- 'नो सुलभं पुणरावि जोवियं' जिसने इस जन्म में धर्माचरण नहीं किया, उस व्यक्ति को परलोक में भी ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपी धर्म का मिलना दुष्कर है । जो व्यक्ति एक बार भी विषयासक्ति में पड़कर धर्माचरण से भ्रष्ट हो जाता है, वह फिर अनन्तकाल तक इस संसार में परिभ्रमण करता रहता है। इसलिए शास्त्रकार पुकार-पुकार कर कहते हैं-'उठिर नो पमायए' । उठो, प्रमाद भत करो । जो जवानी चली गई है, क्या वह लौटकर वापस आ सकती है ? इसलिए किसी सुविज्ञ ने कहा है --
भवकोटिभिरसुलभ मानुष्यं प्राप्य क. प्रमादो मे ?
नहि गतमायुभूयः प्रत्येत्यपि देवराजस्य ?॥ अर्थात--करोड़ों जन्मों के बाद भी दुर्लभ मानव-जन्म को पाकर मैं क्यों प्रमाद कर रहा हूँ ? बीती हुई आयु कदापि लौटकर नहीं आती, चाहे वह इन्द्र की ही आयु क्यों न हो।
और फिर मनुष्य जीवन मिल भी जाए तो भी संयमप्रधान जीवन प्राप्त होना सुलभ नहीं है।
द्रव्यनिद्रा से जागना द्रव्यसम्बोध है, वह इतना दुर्लभ नहीं है, किन्तु भावनिद्रा (ज्ञान-दर्शन-चारित्र की शून्यता) से जागना अत्यन्त दुर्लभ है। यहाँ शास्त्रकार का आशय द्रव्यसंबोध से नहीं है, भावसंबोध से है, जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप-संयम का स्वीकार करने पर प्राप्त होता है। यहाँ इस भावबोध की दुर्लभता बताकर इस बोध को प्राप्त करने की प्रेरणा दी है-"संबुज्झह संबोही .. दुल्लहा ।" यहाँ द्रव्य और भाव के भेद से सोने और जागने की चौभंगी समझ लेनी
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