Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन-चतुर्थ उद्देशक
२७६
किया है । जैसे यतनापूर्वक चर्या -- चलने-फिरने के लिए ईर्यासमिति का पालन करे । यानी साढ़े तीन हाथ परिमित भूमि (आगे की) देखकर गमन करे।
यतनापूर्वक प्रमाणित भूमि पर आसन (वैठने) के लिए ली ईसिणिति का निर्देश है तथा शय्या (बिछौने) पट्टे आदि को भलीभांति देखकर प्रमाजित करके उस पर स्थिति के लिए आदाननिक्षेपणासमिति बता दी है तथा आहार-पाती के विषय में सम्यक् उपयोग रखे, निर्दोष आहार का ग्रहण एवं सेवन करे, इसके लिए एषणासमिति का विधान है। उपलक्षण से यहाँ भापासमिति और परिष्ठापनासमिति के पालन का भी संकेत समझ लेना चाहिए । यहाँ प्रकारान्तर से प्रमादत्याग का भी संकेत है । इस प्रकार यह माथा चारित्र-शुद्धि से सम्बन्धित है।
समितियुक्त मुनि के लिए कषाय का परित्याग आवश्यक १२वीं गाथा में शास्त्रकार ने कषाय-न्याग का निर्देश किया है। क्योंकि कर्मबन्धन के कारणों में से एक कारण कपाय भी है। साधक में कषाय रहेगा और बढ़ता रहेगा तो बाहर से क्रिया-काण्ड करता या समितियुक्त प्रतीत होता हुआ भी साधु कषायग्रस्त होने के कारण अन्दर से खोखला होगा। इसलिए इस गाथा में चारों कषायों का परित्याग करने का निर्देश किया गया । मान, क्रोध, माया और लोभ के लिए यहाँ क्रमश: 'उक्कसं', 'जलण', 'म' और 'पज्झत्थं' शब्द का प्रयोग किया गया है । परन्तु इन चारों कषायों को भलीभाँति वही मुनि छोड़ सकता है, जो पूर्वोक्त तीन (ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपणासमिति एवं एषणासमिति) स्थानों में सदा संयम रखता हो, संयत रहता हो । वही बात यहाँ कही हैएतेहि तिहि ठाणेहि संजए सततं मुणी । यह कहकर शास्त्रकार ने साधु को प्रमाद से दूर रहने की बात सूचित कर दी है, क्योंकि प्रमाद भी कर्मब धन का कारण है। एषणासमिति के साथ भाषासमिति और परिष्ठापना समिति का विधान भी तीसरे स्थान में आ जाता है। क्योंकि भिक्षा आदि के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर साधु का भाषण-संभाषण करना भी सम्भव है, इसलिए यहाँ भाषा समिति का भी समावेश समझ लेना चाहिए। तथा साधु आहार करेगा तो उच्चार और प्रस्रवण भी अवश्यंभावी है। इसलिए उच्चार-प्रस्रवण के यतनापूर्वक विसर्जन के लिए उच्चारप्रस्रवणादि परिष्ठापनासमिति भी यहाँ आ जाती है। इन पाँचों समितियों का पालन कौन कर सकता है ? इसके उत्तर में यहाँ 'मुणो' शब्द प्रयुक्त है। तीनों लोकों के स्वरूप को जानने तथा मनन करने वाला मुनि है। ऐसा मुनि जिससे आत्मा अभिमानयुक्त हो, उस मान को छोड़ दे, जो आत्मा को जलाता है, उस ज्वलन-क्रोध का भी त्याग करे । जिसका मध्य (हृदय) न जाना जा सके, उसे णम-माया कहते हैं और संसारपर्यन्त जो प्राणियों के मध्य (मन में) रहता है,
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