Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन - तृतीय उद्देशक
२३३
बीज जलकर नष्ट हो गया है, ऐसा धान्य पुनः अंकुरित नहीं होता, उसी प्रकार जिसके कर्मबीज जलकर नष्ट हो गये हैं, वे कर्मबीज पुनः उस आत्मा में अंकुरित नहीं होते । इसीलिए शक्रस्तव पाठ में सिद्ध भगवान का स्वरूप बताते हुए कहा है'सिवभयलमरुयमणंत नक्खयमव्वाबाहम पुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं
संपत्ताणं ।'
अर्थात् — शिव, अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावृत्ति, सिद्धिगति नामक स्थान को सम्प्राप्त ।
यहाँ अपुनरावृत्ति शब्द विशेषरूप से ध्यान देने योग्य है । उसका भावार्थ यह है कि सिद्धगति (मोक्ष) में जाने के बाद जहाँ से पुनः लौटकर आना नहीं होता । वैदिकधर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ भगवद्गीता में भी कहा है
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।
जहाँ पर जाकर जीव पुनः लौटते नहीं हैं, वही मेरा ( परमात्मा का ) परम धाम (सिद्धिगति नामक स्थान ) है ।
क्योंकि जितनी भी धर्म-साधनाएँ की जाती हैं, वे सब इसी उद्देश्य से की जाती हैं कि साधक को मुक्ति - कर्मों से, जन्ममरण से रागद्वेष से मुक्ति मिले । यदि रागद्वेष कर्ममल एवं पाप से सर्वथा मुक्त एवं शुद्ध होने के बाद भी पुनः उन्हीं में आत्मा लिप्त हो जाय तब तो सारा काता-पींजा कपास हो जाएगा, इतने जन्मों में किया कराया सब गुड़गोबर हो जाएगा। कौन ऐसा मूर्ख होगा जो अपार पुरुषार्थ करने के बाद शुद्धता और अकर्मता को प्राप्त होने पर पुन: उसी अशुद्धता और कर्म के दलदल में फँसना चाहेगा ? किन्तु त्रैराशिक या बौद्ध यह कहते हैं कि वे शुद्ध निष्पाप आत्मा स्वयं तो रागद्वेष में लिपटना नहीं चाहते, परन्तु जब वे देखते हैं कि हमारे (माने हुए) शासन की पूजा बढ़ रही है और पर शासन का अनादर ( अवहेलना ) हो रहा है, तब उन्हें प्रमोद ( हर्प क्रीड़ा ) उत्पन्न होता है, तथा अपने शासन का अनादर या लाघव देखकर द्वेष होता है । इस कारण वह मोक्ष में स्थित आत्मा पुनः रागद्वेष से लिप्त हो जाता है; कर्मरज से रिलष्ट हो जाता है । अर्थात् रागद्वेष से लिप्त आत्मा शनैःशनैः ठीक उसी तरह कर्मरज से मलिन हो जाता है, जिस तरह बार-बार उपभोग करने से स्वच्छ निर्मल वस्त्र मलिन हो जाता है । इस प्रकार से मलिन हुआ आत्मा कर्म के गुरुत्व (भार) से पुनः संसार में लौट आता है ।'
१. आर्यसमाज की मान्यता भी इसी से कुछ मिलती-जुलती है। उसका भी यही कहना है कि ईश्वर मोक्ष में जाकर कुछ दिन धूमधाम कर फिर संसार में लोकोपकारार्थ आ जाता है ।
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