Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन-तृतीय उद्देशक
२२६
जीव और कर्म के सम्बन्ध से उत्पन्न अनेक भवप्रपंच से यह युक्त है । इस लोक में संसारी और सिद्ध दोनों प्रकार के जीवों का स्थान है । आठ कर्मों से रहित सिद्ध (मुक्त) जीवों का लोक इसी लोक के अन्त में है । यह लोक ऊपर और नीचे चौदह रज्जु प्रमाण वाला है । इसकी आकृति रंगशाला में कमर पर दोनों हाथ रखकर नाचने के लिए खड़े सिर-रहित हुए पुरुष की सी है । यह लोक नीचे मुख ( औंधा मुँह ) करके रखे हुए सकोरे के आकार के समान आकार वाले नीचे के सात लोकों से युक्त है तथा थाली के समान आकार वाले असंख्यात द्वीप और समुद्र के आधारभूत मध्यलोक से युक्त है । इसी प्रकार सीधा और उलटा मुँह किये दो सकोरों के समान यह ऊर्ध्वलोक से युक्त है ।
इस प्रकार के लोक के स्वरूप से अनभिज्ञ एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि अन्यमतवादी लोग असत्य भाषण करते हैं ।
ra अगली गाथा में शास्त्रकार अन्यतीर्थिक लोगों के अज्ञान को सिद्ध करके उसके फल का दिग्दर्शन कराते हैं -
मूल पाठ
अमणुन्नसमुप्पायं, दुक्खमेव विजाणिया । समुप्पायमजाणता, कहं नायन्ति संवरं ? ॥ १० ॥
संस्कृत छाया
अमनोज्ञसमुत्पादं दुःखमेव विजानीयात् । समुत्पादमजानन्तः, कथं ज्ञास्यन्ति संवरम् ? ।।१०।।
अन्वयार्थ
( दुक्खं) दुःख ( अमणुन्नसमुप्पायमेव) अशुभ अनुष्ठान से ही उत्पन्न होता है, (विजाणिया ) यह जानना चाहिए | ( समुप्पायं) दुःख की उत्पत्ति का कारण ( अजाणता ) न जानने वाले लोग ( संवरं ) दुःख को रोकने का उपाय ( कहं) कैसे ( नायंति) जान सकते हैं ।
भावार्थ
दु:ख अशुभ अनुष्ठान ( प्रवृत्ति) से ही उत्पन्न होता है, चाहिए । जो लोग दुःख की उत्पत्ति का कारण नहीं जानते हैं, वे निरोध का उपाय कैसे जान सकते हैं ?
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यह जानना दुःख के
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