Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
व्याख्या दुःखोत्पत्ति से अनभिज्ञ : दुःखनिरोध से अज्ञात
अमणुन्नसमुप्पायं दुक्ख मेव- इस गाथा में शास्त्रकार उन विविध मतवादियों की अज्ञानता पर तरस खाते हुए कहते हैं कि सर्वप्रथम तो सभी दर्शनवालों को यह जानना चाहिए कि जब वे वैषयिक सुख प्राप्त कर लेते हैं, तब तो वे लोकरचना के लिए अपने-अपने माने हुए इष्टदेवों (ईश्वर, विष्णु आदि) की कृपा मान लेते हैं. जब कि उनके शुभ अनुष्ठानों के फलस्वरूप ही उन्हें वह सुख प्राप्त होता है, किन्तु जब मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद आदि अशुभ अनुष्ठानों के कारण घोर पापकर्मबन्धन के फलस्वरूप दुःख आ पड़ते हैं, तब वे अपने-अपने माने हुए तथाकथित सृष्टिकर्ता (ईश्वर, विष्णु आदि) को कोसते हैं, उन्हें उपालम्भ देते हैं, या काल, नियति, स्वभाव, कर्म तथा किसी निमित्त पर दोषारोपण करके दुःख पाते रहते हैं, मन में कुढ़ते रहते हैं; परन्तु वे दुःख के मूल कारणों को नहीं जान पाते, मत मोह या कुविचारों के पूर्वाग्रह के कारण दुः' के स्वरूप को जान व समझ नहीं पाते। उनकी बुद्धि पर मोह, अज्ञान और मिथ्यात्व का धना काला पर्दा पड़ जाता है, जिससे वे दु:ख के स्वरूप, दुःख की उत्पत्ति, निरोध और क्षय के कारणों को नहीं समझ पाते । इसीलिए कहा है.--""दुक्खमेव विजाणिया ।' आशय यह है कि पूर्वोक्त मतवादी लोगों में से दुःख आ पड़ने पर कोई यों कहने लगता है-ईश्वर ने दु:ख दिया है और कोई विष्णु, ब्रह्मा या महादेव को इस दुःखोत्पत्ति का कारण मानने लगता है। इस उलटी मान्यता के कारण वह और अधिक दुःख पाता है, दुःख के कारणों को पैदा करने लगता है। परन्तु अपनी आत्मा में झाँक कर अपने उपादान को नहीं देखता कि इस दुःख का मूल कर्ता मैं ही हूँ। मेरे ही द्वारा किसी समय किये हुए अशुभ अनुष्ठान (मन-वचन-काया से कृत दुष्कृत--पापाचरण) से ही ये दुःख उत्पन्न होते हैं। जो व्यक्ति अशुभ ----बुरे आचरण, अधर्मानुष्ठान करता है, उसे उसके कारण पापकर्म का बन्धन होता है और पापकर्मों का फल दुःख के रूप में मनुष्य को भोगना पड़ता है। सम्यग्दृष्टि, ज्ञानवान पुरुष दुःख के इस मूलभूत कारण को भली-भाँति जानता है, परन्तु मिथ्यादृष्टि, स्वत्वमोह, मताग्रह आदि के कारण दुःख के कारणों को सम्यकरूपेण नहीं जानता।
___अमणुनसमुप्पायं-- यह दुःख का विशेषण है। दुःख अमनोज्ञसमुत्पादरूप ही है। यहाँ इन दोनों शब्दों को एक करके दुःख के लक्षण के रूप में बहुब्रीहि समास करके प्रस्तुत किया है। अमनोज्ञसमुत्पाद का अर्थ इस प्रकार है----मनोज्ञ का अर्थ है -- मन के अनुकूल, मन को प्रिय । मन के अनुकूल का तात्पर्यार्थ है शुभ अनुष्ठान
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