Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन- तृतीय उद्देशक
२०५
लोक को उत्पन्न किया है, जैसे कोई किसान खेत में बीज बोकर धान्य को उत्पन्न करता है । १
'देवउत्त - मूल पाठ में 'देवउत्त' शब्द है, संस्कृत में उसके तीन रूप हो जाते हैं - देव + उप्त = देवोप्त, देवगुप्त और देवपुत्र । पहले का अर्थ होता है देव के द्वारा बीज की तरह बोया हुआ । आशय यह है कि इस सृष्टि को उत्पन्न करने के लिए किसी देव ने अपना बीज (वीर्य) किसी स्त्री में बोया अर्थात डाला | और उससे मनुष्य एवं दूसरे प्राणी हुए, उन्होंने प्रकृति की सब वस्तुएँ बनाईं । दूसरा रूप है --- देवगुप्त । उसका अर्थ है-किसी देव के द्वारा गुप्त रक्षितः । कोई देवता इस लोक का रक्षक है, जब-जब संसार पर कोई संकट या धर्मात्माजनों पर विपत्ति आती है, धर्म की ग्लानि ( हानि ) और अधर्म (पाप) की वृद्धि होती है, तब-तब वह देव अवतार लेता है, जगत् की रक्षा करता है । भगवद्गीता में कहा गया है कि, जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान होने लगता है, तब-तब मैं (अवतार) अपने आपको सर्जन ( उत्पन्न ) करता हूँ । सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों के विनाश के लिए, और शुद्धधर्म की संस्थापना के लिए मैं युग-युग में जन्म लेता हूँ | तीसरा रूप, जो देवपुत्र है, उसका अर्थ है - यह लोक किमी तथाकथित देव का पुत्र है । सारा संसार किसी देव की संतान है, जिसने संसार को पैदा किया है ।'
'बंभउत्तति आवरे' - इस लोक की रचना के सम्बन्ध में किन्हीं विशेष तथा - कथित बुद्धिमानों ने कहा- यह लोक प्रजापति ब्रह्मा के द्वारा उत्पन्न किया हुआ है ।' उनका कहना है कि मनुष्य की यह ताकत नहीं कि वह इतनी बड़ी व्यापक सृष्टि की रचना कर सके और देव, वे मनुष्य से भौतिक शक्ति में कुछ अधिक जरूर हैं, लेकिन वे भी इस विशाल ब्रह्माण्ड को रचने में कहाँ समर्थ हो सकते हैं ? उनमें
१. उस वैदिक युग में जबकि ज्ञान-विज्ञान का इतना विकास नहीं हुआ था, मनुष्य अग्नि, वायु, पृथ्वी, जल, आकाश, विद्य ुत्, दिशा आदि प्राकृतिक वस्तुओं का उपासक था, प्रकृति को ही वह देव मानता था । इसलिए देवकृत लोक की कल्पना प्रचलित हुई । जैसे कि उपनिषद् में कहा है – 'एकोऽहं बहुस्याम् ।' २. यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ! |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम् ।। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
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- श्रीमद्भगवद्गीता
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