Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
भाव विरुद्ध है। यदि वह प्रधान मूर्त है तो वह स्वयं किससे उत्पन्न हुआ ? उसे स्वयं उत्पन्न तो आप कह नहीं सकते, क्योंकि ऐसा कहोगे तो फिर इस लोक को भी स्वयं उत्पन्न क्यों नहीं मान लेते ? यदि कहो कि वह प्रधान दूसरे से उत्पन्न है, तब तो दूसरे को उत्पन्न करने के लिए तीसरे की और तीसरे के लिए चौथे की आवश्यकता होगी, इस प्रकार अनवस्था दोष आ पड़ेगा। अत: जैसे उत्पन्न हुए बिना ही प्रधान को अनादिभाव से स्थित मानते हो तो, इसी तरह लोक को ही अनादिभाव से स्थित क्यों नहीं मान लेते ? सांख्यदर्शन का मानना है कि प्रधान अविकृत है, सत्त्व, रज, तम की साम्यावस्था ही प्रधान है, किन्तु उस अविकृत प्रधान से महत् (बुद्धि) आदि तत्त्वों की उत्पत्ति मानना तो विकृति है। इसलिए विकृत प्रधान से महद् आदि तत्त्वों की उत्पत्ति मानना, सांख्यमत के लिए जैसे अभीष्ट एवं संगत नहीं है, वैसे ही अविकृत प्रधान से विकृत लोक की उत्पत्ति मानना भी अभीष्ट नहीं हो सकता।
प्रकृति अचेतन है, वह चंतन पुरुष का प्रयोजन सिद्ध करने में कैसे समर्थ हो सकती है, कैसे प्रवृत्त हो सकती है; जिससे आत्मा का भोग सिद्ध होकर सृष्टि रचना हो सके।
___ यदि कहें कि अचेतन होने पर भी प्रकृति का यह स्वभाव है, कि वह पुरुष (आत्मा) का प्रयोजन सिद्ध करने के लिए प्रवृत्त होती है, तब तो प्रकृति से स्वभाब ही बलवान ठहरा, जो प्रकृति को भी अपने नियंत्रण में रखता है ।
अगर ऐसा है तो आप स्वभाव को ही जगत् का कारण क्यों नहीं मान लेते, अदृष्ट प्रकृति आदि की हवाई कल्पना करने का क्या प्रयोजन है ?
___ अतः इन युक्तियों से यह सिद्ध हो जाता है कि प्रधान जगत् का कर्ता नहीं हो सकता। स्वभाव, नियति आदि कथञ्चित् जगत् के कारण
__ सांख्यदर्शन वाले यह आक्षेप करते हैं कि स्वभाववादी भी तो स्वभाव को जगत् का कारण मानते हैं ? जैनदर्शन कहता है कि एकान्तरूप से स्वभाव को जगत् का कारण मानना हमें इष्ट नहीं है, किन्तु कथञ्चित् स्वभाव को जगत् का कारण मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं । यदि स्वभाव का यह अर्थ किया जाय कि स्वयं अपनी भाव =उत्पत्ति, तो इस दृष्टि से स्वभाव को जगत् का कारण मानने में जैनदर्शन को कोई आपत्ति नहीं। तथा नियतिवादियों ने जो एकान्तरूप से जगत् को नियतिकृत माना है, वह हमें अभीष्ट नहीं है, किन्तु कथञ्चित् नियति को जगत् का कारण
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